पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/७२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७१
बारहवाॕ प्रस्ताव

पर दस्तखत करना भी बहुत जन होता था। कोठी तथा इलाकों का सब काम मुनीम, गुमास्ते और कारिदों के हाथ में आ रहा। बहती गंगा मे हाथ धोने की भॉति सभी अपना-अपना घर भरने लगे। नदू मालामाल हो गया, क्योंकि हुमा की फरमाइशे इसी के जरिए मुहैया की जाती थीं और वहाँ का कुल हिसाब-किताब सब इसी के सिपुर्द था। यद्यपि बाबू की हुमा से रसाई कराने का खास जरिया हकीम हा था, पर इसके हाथ केवल ढॉक के तीन पत्ते रहे। कारण इसका यही था कि नदू जात का बकाल रुपए को अपनी जिंदगी का सर्वस्व माननेवाला महा टच बनिया था, रुपए की कदर समझता था, और यह इसका सिद्धांत था कि मान, प्रतिष्ठा. बड़ाई. शील, संकोच, मुलाहिजा सब रुपए के अधीन है। उसमे यदि हानि होती हो, तो उमदा-उमदा सिफ्ते और बड़े-बड़े गुन भार में झोंक दिए जायॅ–

अर्थोऽस्तु नः केवल–येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे[]

इधर हकाम एक तो मुसलमान, दूसरे पुराने समय , की अमीरी को वू मे पगा हुआ था, घर में भूॅ जी भॉग भी चाहे न हो, पर जाहिरा नुमाइश नवाबो ही की-सी रहना चाहिए। हकीम साहब, जो दाने-दाने को मुहताज थे, बाबू की बदौलत अमीरो के-से सब ठाठ-बाट और ऐश-आराम मे गर्क हो गए।


  1. *हमे केवल धन चाहिए, जिस एक के बिना जितने गुण हैं, सब तिनके के समान हैं।