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सौ अजान और एक सुजान


कि इन अमीरों में यह "नंदू के रग्घू" इस नाम से प्रसिद्ध था। रग्घू की भी अपनी तरहदारी और अंदाज़ का दिमाग नंदू बाबू से कुछ कम न था। घर में चाहे भूँजी भाँग न हो, पर बाहर यह ऐसे अंदाज से रहता था एक नया आदमी, जो इसका सब कच्चा हाल नजानता हो, इसे बड़ा अमीर मान लेता।

नंदू का बड़ा प्रेमी और दिली दोस्त एक तीसरा आदमी और था । इसके जन्म-कर्म का सच्चा हाल किसी को मालूम न था । पर नंदू इसे हकीम साहब कहा करता था । हकीम साहब अपने को नवाबजादा बतलाते थे, और अपनी पैदाइश का हाल बहुत छिपाते थे। पर जो असल बात होती है, वह किसी-न-किसी तरह अंत को प्रकट हो ही जाती है। अस- लियत इसकी यों है कि इसका बाप कंदहार का रहनेवाला, नवाब शुजाउद्दौला के खुशामदी उमराओं में से था। इसने एक खानगी रख ली थी । उससे एक लड़की और एक लड़का हुआ था । उपरांत का हाल फिर कुछ मालूम नहीं कि यह लखनऊ से यहाँ क्योंकर आया, और कब से यह अनंतपुर में आ बसा । उस कंदहासी अमीरी की दूसरी ओलाद इसकी हमशीरा को भी बराबर तलाश करते रहिएगा, तो हमारे इसी किस्से में कही-न-कहीं पर अवश्य ही पा जाइएगा । यह हकीम साहब बाहर तो बड़े तूमतड़ाँग और लिफाफे से रहते थे, पर भीतर मियांँ के सिवा एक टूटी खाट