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आठवाँ प्रस्ताव

नाक, लाज अरु आफ़त काज—
द्रव्य बचा के राखो साज।

"यह मत समझो, सेठजी की कमाई सदा ऐसी ही स्थिर बनी रहेगी। बराबर ख़र्च करते रहो, और उसमें मिलाओ कभी कुछ नहीं, तो असंख्य धन भी नहीं रह जाता। और भी कहा है—

घर का ख़र्च देखा करो;
भारी देखो, हलका करो।

"बाबू, अभी तुम्हें नहीं मालूम होता, पीछे पछताओगे। चिकने मुँह के ठग की भाँति इस समय सभी तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाते हैं। पीछे तुम्हारी छाया तक बरकाने लगेंगे। कहावत है—'छूछा, तोहिं को पूछा?'

तिहीदस्ती भी चलाती है कहीं अच्छी चाल;
ख़ाली थैली न खड़ी होती कभी लक्खों साल।

'मन नहिं सिधु समाय।' इस मन की उमंग को बढ़ाते क्या लगता है। एक बात में ज़रा-सा तरहदारी और अच्छेपन का दखल-भर होना चाहिए। अच्छी धोती को अच्छा अँगरखा, अच्छी पगड़ी न होगी तो सजावट और तरहदारी कोसों दूर भगेगी। जब अच्छा दुशाला हुआ, तो मोतियों की माला क्यों न हो। नफ़ीस पोशाक के लिये नफ़ीस सवारियाँ भी होनी चाहिए। जब सवारी हुई, तो दस-पाँच यार-दोस्त क्यों न हों? अब खान-पान, लेन-देन सब