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आठवाॅ प्रस्ताव


तो उसे भूला न कहेंगे । अब इस समय तो रात हो गई, थके- थकाए हो, जाओ, खा-पीकर आराम करो। कल सबेरे मैं तुम्हारे यहॉ फिर आऊँगा।” यह कहकर उसने अपने घर की राह ली।

अब नित्य के आनेवाले सन्नाटा पाय लौटने लगे। कोई कहता था-"आज क्या सबब, जो बाबुओं के बैठने का कमरा बंद है। बसंता भी नही देख पड़ता । बाबुओं को भगवान् सलामत रक्खे, हम लोगों की घड़ी-दो घड़ी बड़े चैन और दिल्लगी में कटती है। हम लोग यहाँ बैठ कितना हल्ला- गुल्ला और धौलधक्कड़ किया करते हैं, पर बाबू साहब कभी चूँ नहीं करते।" दूसरे ने कहा-"सच है, रियासत के माने ही यह हैं । इस समय अब इस दहार में तो दूसरा ऐसा रईस नहीं है। हरकसेबाशद कोई आवे, यहाँ से आजुर्दा न लौटेगा।" तीसरे ने कहा-"सच है, इसमें क्या शक । बाबुओं की जितनी तारीफ की जाय, सब जा है । पर यार बसंता भी बड़ा, बेनजीर आदमी है । यह सब उसी के दम का जहूरा है। जब से वसंतराम का अमल-दखल हुआ, तब से हम लोगों ने भी इस दरबार में जगह पाई। बड़ी बात, मनहूस कदम उस पंडत का तो पैरा उड़ा। बसंता ही ऐसा था, जिसने हजार-हजार कोशिशों के बाद बाबुओं को उसके चंगुल से छुड़ाय आजाद किया। न जानिए कहाँ का मरा बिलाना कुंदेनातराश इस दरबार में आ भिड़ गया था।"

इधर इन दोनो सेठ के लड़कों में बड़े को, जिसे छोटे की