आठवाँ प्रस्ताव
कोयला होय न ऊजरो सौ मन साबुन लाय ।
यद्यपि इन दोनो बाबुओं की ऑख का पानी ढरक गया था, शरम और हया को पी बैठे थे, कार्य-अकार्य में इन्हें कुछ संकोच न रहा, धृष्टता, अशालीनता और बेहयाई का जामा पहन सब भाँति निरंकुश और स्वच्छंद बन गए थे ; पर उस दिन इनका पुलीस के घेरे में आ जाना और बसंता के साथ इनकी भी लेव-देव करने पर लोगों की ताक देख दोनो कुछ- कुछ सहम-से गए, और मन-ही-मन अपनी कुचाल पर कायल होने लगे। वह आदमी, जिसे हम सौ अजान में एक सुजान कहेंगे, और जो इन दोनो को भीड़ से बाहर निकाल लाया, जिसका पूरा परिचय हम अपने पाठकों को दे चुके हैं, उसने इन्हें घर पहुँचाय इनसे बिदा मॉगी। ये दोनो अत्यंत लजित थे। ऑख इसके सामने न कर सके। सिर नीचा किए घर तक गाड़ी पर बैठे चले आए। गाड़ी से उतरते भी इनकी कुछ बोलने की हिम्मत न होती थी; कितु उनके उस समय के हृद्गत भाव से प्रकट होता था कि ये दोनो उस महात्मा सुजान के बड़े एहसानमंद हैं। इन्हें अत्यंत लज्जित और बुझा मन देख यह बोला-"बाबू, तुम कुछ मत डरो, न किसी तरह का संकोच मन में लाओ। बीती बात का अब विचार ही क्या ? 'गतं न शोचामि ।' आगे के लिये सॅभलकर चलो। अभी कछ बिगड़ा नहीं, सवेरे का भूला साँझ को घर आवे,