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सौ अजान और एक सुजान


आ रहा है। झूठ कहते हों, तो हमारे सात पुरखा नरक में गिरे। न जानिए, आज किस कुसाइत में घर से निकले कि हाथ गरम होना कैसा एक फूटी झंझी से भी भेट न हुई। भीड़ और हुल्लड़ के घिस्संघिस्सा में अंग चूर-चूर हो गए। भला बचकर किसी तरह से बाहर निकल आए, मानो लाखों भर पाए। क्या कहते हो, ‘तो क्यों आया?’ अरे न आवें, तो क्या करें। एक तो गरीब दूसरे बड़ा कुनबा। अब भी क्या हीराचंद-से दानी और पात्रापात्र का विवेक रखनेवाले बैठे हैं, जो हम-ऐसों की दीनता पर पिघल उठेंंगे? ईश्वर इनका सत्यानाश करे, न जानिए कहाँ-कहाँ के ओछे-छिछोरे इकट्ठे हो गए कि हमारे बाबुओं को कुढंग पर चढ़ाय बिगाड़ डाला। सेठ के समय तो हम किसी के आगे हाथ पसारना कैसा, घर के बाहर कभी पाँव भी नहीं रखते थे। वही अब तुच्छ-से- तुच्छ आदमियों के सामने दिन-भर गिड़गिड़ाते फिरते हैं, तब भी साँझ को अच्छी तरह पेट-भर अन्न नहीं मिलता। आज इस मठ का मेला समझ आए थे कि किसी से दो-चार पैसे पा जायेगे, सो इस बसंता का सत्यानाश हो, पास का भी जो कुछ आज कमाया था, सब खो चले, और तन का एक-एक कपड़ा, देखो, चिरबत्ती हो गया। बचा की खूब पूजा भी की गई, जनम-भर याद रहेगा। अरे यह कहो, न जानिए किसकी पुन्याई सहाय लगी कि दोनो बाबू सँभलकर निकल भागे, नहीं तो सब इज्जत खाक में मिल जाती। और, कब