लगती थीं। सबेरे से दस बजे रात तक इस मेले का ठाट
रहता था।
हम अपने पाठकों को इसके पहले एक नए आदमी का परिचय दे चुके हैं, जो दोनो बाबुओं का मानो जीवन-सर्वस्व था, जिसके विना एक क्षण उन्हें कल न पड़ती थी, और बाबुओं को इसके चंगुल में देख भीड़-की-भीड़ ओछे-छिछोरे इसकी खुशामद में लगे रहते थे। उन्हीं मे इस मठ के बहुत-से योगी भी थे। इसलिये इस मठ में तो मानो वसंतराम का राज्य-सा था । जो-जो अत्याचार यहाँ आकर यह कर गुजरता था, वे बुरे तो सबको लगते थे, कई एक बूढ़े-बूढे गुसाई तो लहू का पूंट पीकर रह जाते थे पर उन बाबुओं के मुलाहिजे से कुछ न कहते थे । यद्यपि ऐसे-ऐसे छिछोरों के दु संग से इन दोनो बाबुओं की भी सब कलई दिन-दिन खुलती जाती थी, और सम्मान जैसा औवल दरजे के रईसों को मिलना चाहिए, उसमें भले लोगों के बीच नित्य-नित्य कमी होती जाती थी, तो भी पुराने सेठ सुकृती हीराचंद की पहली बातों को याद कर सभी चुप रह जाते थे । क्या अचरज, इन गुसाइयों को भी हीराचद ही की भलमनसाहत का खयाल आ जाता हो, जिससे ये लोग बसंता तथा इन बाबुओं का अनेक तरह का उपद्रव मठ के मेलों में देखकर भी चुप रह जाते थे। जो हो, हम प्रस्तुत का अनुसरण करते हैं।
एक बूढ़ा ब्राह्मण-'हाय-हाय! हॉफते-हॉफते कंठगत प्राण