दूर-दूर से लोग यहाँ मानमनौती करने आते थे । इस चबू-
तरे के एक ओर एक धूनी-सी थी, जिसमें रात-दिन गुग्गुल,
लोबान और चदन की लकड़ी सुलगा करती थी। लोग
कहते हैं, यह अग्नि यहाँ द्वापर के अंत से आज तक नहीं
बुझी, और अर्जुन ने जब खांडव वन जलाया था, तो उसकी
परिशिष्ट अग्नि लाकर यहीं स्थापित कर दी, और प्रलय
काल में जब महादेवजी के तीसरे नेत्र से अग्नि निकल-
कर संपूर्ण विश्व को भस्मसात् करेगी, उसी में यह धूनी की
आग भी मिलकर शिव की नेत्राग्नि को दोचंद भड़का देगी।
इस मठ के पडे या पुजारी थोड़े-से जटाधारी काले-काले योगी
या गुसाई लोग थे। वे ही यहॉ प्रधान या मुखिया थे। जो कुछ
इस मठ में चढ़ता था, वह सब इन्ही लोगों में बॅट जाता
था। आवारगी, उजड्डपन और असत् व्यवहार में ये गुसाई,
भी और-और पडे तथा तीर्थलियों से किसी बात में कम न
थे । इस स्थान के पुरातन और पवित्र होने में कोई संदेह
नहीं; किंतु इन अपढ़ योगियों का दुराचरण देख घिन होती.
थी, और यह मठ यहाँ तक बदनाम हो गया था कि बहुत-से
भलेमानुस शिष्ट जन वहाँ आना या साल में जो कई मेले
इस मठ के हुआ करते थे उनमें शरीक होना मर्यादा के
विरुद्ध समझते थे । वैशाख और जेठ, दो महीने के प्रति
मंगलवार को यहाँ बड़ी भीड़ होती थी। हजारों आदमी
आस-पास के गाँव और नगर के यहाँ आते थे। सैकड़ों दुकानें
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सौ अजान और एक सुजान