जिससे हम इसे कोई पुराना तीर्थ कह सकें। इस मठ का कुल हलका पौन कोस के गिर्द में था। चारों ओर से लहलहे,
सघन वृक्षों की शीतल छाया और ठौर-ठौर लताओं से छाए
हुए कुंजों को रमणीयता मन को हरे लेती थी । ग्रीष्म का
सताप और जाडे की कपकपी कभी वहाँ नाम को भी न
व्यापती थी । बरसात के पानी का एक अच्छा लहरा घने
वृक्षों की छाया में एक साधारण-सी बूंदाबांदी मालूम होती
थी । बोध होता है, मानो ये सब विटप और लताएँ वर्षा,
वात, शीत, आतप के निवारक इस मठ के लिये एक
क़ुदरती छाता बन गए हैं । हम ऊपर लिख आए हैं कि
वहाँ कोई देव-मंदिर या किसी देवता की प्रतिमा स्थापित
न थी, जिससे तीर्थ होने का कोई चिह्न -वहाँ प्रकट होता
हो ; किंतु तपोभूमि-सदृश उस स्थान का माहात्म्य ऐसा देखा
जाता था कि वहाँ पहुंचते ही मन में सतोगुण का भाव
आप-से-आप उदय हो आता था । मन कैसा ही उदासीन
और मलीन हो, वहाँ जाने से प्रसन्न और प्रफुल्लित हो
उठता था । इस आश्रम का मुख्य स्थान कई एक पुराने-
पुराने वट वृक्षों के बीच एक मढ़ी-सी थी, जिसके भीतर
गज-भर का लंबा-चौड़ा और आधा गज ऊँचा एक पक्का
चबूतरा-सा बना था । यात्री या जियारत करनेवाले उसी
चबूतरे की पान, फूल, मिठाई इत्यादि से पूजा करते थे।
दस-बीस कोस के गिर्द में यह स्थान ऐसा प्रसिद्ध था कि
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सातवाॅ प्रस्ताव