यों बाबू साहब बराय नाम काठ के उल्लू बनाकर थाप दिए
गए थे, असल में मानो हीराचंद का वलीअहद यही बन बैठा
था, और उनके धन का सब सुख भोगनेवाला यही अपने
को मानता था। ऐसे दोपहर के समय यह क्यो घर से निकला,
और क्या इसका मनसूबा था, इसका रहस्य जानने को कौन
न उकताता होगा; किंतु सहसा किसी रहस्य का उद्घाटन
उपन्यास-लेखकों की रीति के विरुद्ध है, इससे इस प्रस्ताव को यही समाप्त करते हैं।
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सातवाँ प्रस्ताव
सन्ततिः श्लाध्यतामेति पितृणां पुण्यकर्मभिः ।
अनंतपुर से ईशानकोण के दो कोस पर एक मठ था । यह मठ किसी प्राचीन देवस्थान में हो, इसका कहीं से कुछ पता नही लगता ; क्योंकि किसी पुराने लेख, इतिहास या पुराण मे इसकी कही चर्चा नहीं पाई गई। कितु साथ ही इसके यह भी कोई नहीं जानता कि कब से इस मठ की पूजा और मान आरंभ किया गया; न यही कोई बता सकता है कि किस बड़े सिद्ध या महात्मा का यह आश्रम या तपोभूमि है। इस मठ में किसी देवी-देवता की मूर्ति न थी ; न इसके समीप आप-पास कोई कुंड, देवखात, नदी, झरने आदि थे,
ॐ बाप-दादो के पुराय कर्म से संतान की उन्नति और प्रशंसा होती है।