व्यापार में इसकी बुद्धि की स्फूर्ति उस समय के रोजगारियों में एक उदाहरण हो गई थी। नगर-नगर इसकी कोठी, आढ़त और दूकाने इतनी अधिक थी कि उनका इंतिज़ाम इसी की अथाह बुद्धि का काम था। धर्म में निष्ठा, ब्राह्मण में भक्ति, शक्ति रहते भी क्षमा इत्यादि ऐसे लोकोत्तर गुण इसमें थे कि उनकी उपमा किसी दूसरे पुरुष में ढूँढ़ने से भी मिलना दुर्घट है।अस्तु, लड़के इसके कई हुए, किंतु बहुत कुछ उपाय के उपरांत केवल एक ही जीता बचा। पिता के उसमें एक भी गुण न हुए। इसकी अत्यंत सिधाई और सादापन देख लोग इसे भोंदूदास कहते थे; पर नाम इसका रूपचंद था।आशा होती थी, कदाचित् अपनी उमर पर आने से रूपचंद भी पिता के समान गुणागर होते। किंतु ईश्वर का कर्तब कुछ कहा नहीं जा सकता। २५ वर्ष की थोड़ी ही उमर में दो पुत्र, एक कन्या छोड़ यह सुरधाम को सिधार गया। सेठ हीराचंद को यद्यपि इसका बड़ा सदमा पहुँचा, किंतु उस दुःख को अपने धैर्यगुण से दबाय उन दो पौत्रों ही को निज पुत्र-समान पालन-पोषण करने और पढ़ाने-लिखाने लगा, और इतनी धन संपत्ति पाकर जैसा विनीत भाव और नवंता अपने में थी, वैसी इन लड़कों में भी हो जाने का प्रयत्न करने लगा।
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सौ अजान और एक सुजान