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दूसरा प्रस्ताव


चिकनाते हुए फैशन और नज़ाकत के पीछे ज़नरव़ा बन केवल अपने आराम और भोग-विलास की फिक्र के सिवा और कुछ न करना इसे बिलकुल नापसंद था। न हरदम खाली सुमिरनी फेरना ही इसे भला लगता था, न यह आठों पहर अर्थ-पिशाच बन केवल रुपया-ही-रुपया अपने जीवन का सारांश मान बैठा था। वरन् समय से धर्म, अर्थ, काम, तीनों को पारी-पारी सेवता था। व्यासदेव के इस उपदेश को अपने लिये इसने शिक्षागुरु मान रक्खा था——

धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः
यस्त्वेकसेव्यः स नरो जघन्यः।
*

बुद्धिमान और सभाचतर ऐसा था कि जरा-से इशारे में बात के मर्म को पकड़ लेता था। केवल एक ही में नितांत आसक्ति न रख धर्म, अर्थ, काम, तीनो में एक-सी निपुणता रखने से कभी किसी चालाक के जुल में यह नहीं आता था। संसार के सब काम करता था, पर जितेंद्रिय ऐसा था कि कच्ची तबियतवालों की भाँति लिप्त किसी में न होता था——

श्रुत्वा दृष्ट्वा च स्पृष्ट्वा च मुक्त वा घ्रात्वा च यो नरः;
यो न हृप्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः।


* धर्म, अर्थ और काम, इनका समान रूप से सेवन करना चाहिए।जो मनुष्य एक ही का सेवन करता है, वह निंद्य है।

† जो मनुष्य सुनकर, देखकर, छूकर, खाकर और सूंघकर न प्रसन्न होता है न अप्रसन्न, उसे जितेंद्रिय जानना चाहिए।