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दूसरा प्रस्ताव

विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।
*

अपने काम में भरपूर लाभ उठाते हुए इसके कृतकार्य होने का कारण भी यही था। स्वयं यह बड़ा विद्वान् न था, न क्रम-पूर्वक किसी ग्रंथ का अनुशीलन किए था; पर प्रत्येक विषय के पंडित और विद्वानों के सत्संग में बड़ी रुचि रखता था। इस कारण यह इतना बहुश्रुत हो गया था कि ऐसे-वैसे साधारण योग्यतावाले ग्रंथचुंबकों की इसके सामने मुँह खोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। पर इससे यह अपनी योग्यता के अभिमान से किसी का अपमान करता हो, सो नहीं। योग्यता के अनुसार साक्षर-मात्र का आदर और प्रतिष्ठा करता था। यहाँ तक कि कोई शिष्ट मनुष्य अपने द्वेष्यवर्ग का भी हो, तो वह रोगी को औषध के समान उसका महामान्य हो जाता था, और अपना निज बंधु भी अनपढ़ा और दुश्चरित्र हो, तो वह साँप से डसी अँगुली-सा उसे प्यारा न होता था। वरन् वह ऐसे को त्याग देता था——

द्वेष्योऽपिसम्मतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्;
त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदढ्गुलीवोरगक्षता।

उस समय ठौर-ठौर अवध में पाठशालाएँ ऐसों ही की दी हुई वृत्ति से चलती थीं। हमारे यहाँ पंडितों की छात्र-मंडली में उत्तरहा अब तक प्रसिद्ध हैं, विशेष कर यहाँ के वैयाकरण


* बार-बार विघ्न पड़ने पर भी जो कार्य को प्रारंभ करके उसे बीच ही में नहीं छोड़ देते, वे श्रेष्ठ पुरुष हैं।