हैं। इस प्रेम के दूसरे भ्रमर का बार-बार नामसंकीर्तन अनुप- युक्त है। बस, समझ रक्खो, इस सौ अजान में यही एक सुजान हैं, जिसे हम प्रेम की फुलवारी का दूसराभ्रमर कह परिचय देते हैं। पंचानन ठठोल तो था ही, पर इसका ठठोलपन सबके साथ एकसा नहीं रहता था। किसी तरह के तरदुद, फिकिर और चिंता से इसे चिढ़ थी। किंतु जब अपने किसी एकांत प्रेमी को तरद्दुद में पड़ा देखता था, तो जहाँ तक बन पड़ता था, आप भी उसे तरद्दुद से बाहर करने को भिड़ी तो जाता था। इस समय चंदु को कुछ न सूझा, और कोई बात मन में न आई कि कैसे सेठ के घराने को दुर्गति से बचावें, केवल इतना ही कि पंचानन से मिल इससे इसकी कुछ सलाह करें; इसलिये कि पंचानन अदालती कार्रवाइयों को भरपूर समझता है; वह कोई ऐसी बात निकालेगा कि जिससे भरपूर निस्तार हो जाय। यद्यपि इन दोनों की गाढ़ी मैत्री तो थी, पर पंचानन अपनी ठठोल आदत से बाज़ न आ चंदू को 'चकोर' कहता था, और चंदू भी इसे 'चारु चं चरीक' कहा करते थे। आज अपने यहाँ भोर ही को चंदू को आए देख पंचानन बोले– 'आज चकोर को दिन में चकाचौंधी कैसी ? क़ु सूर माफ 'अद्य 'प्रातरेवानिष्टदर्शनम्'।"
चंदू–सच है, अनिष्ट-दर्शन भी इष्ट-दर्शन न हुआ, तो चारु चंचरीक के चिरकाल का प्रेम कैसा ?
पंचानन–आप तो जानते ही हैं कि कुशल-प्रश्न के पूछने में