उसने अपना अभिषेक किया और साठ वर्ष राज्य करके एक सौ नौ वर्ष की आयु में उसने मृत्यु पाई। मृत्यु के समय वनराज गुजरात का सबसे प्रमुख राजा था। वनराज के बाद उसका पुत्र योगराज गुजरात की गद्दी पर बैठा। यह राजा भी वीर योद्धा और प्रसिद्ध धनुर्धर हुआ। इसने अपने राज्य की और भी वृद्धि की। हमारे पूर्वज समुद्री डाकू थे, इस अपवाद को दूर करने के विचार से इसने अपने जीवन-काल में न्याय और उदारता से प्रजा का पालन किया। इसके बाद रत्नादित्य, बैरीसिंह और क्षेमराज अनुक्रम से गद्दी पर बैठे। इन्होंने भी अपने राज्य का यथावत रक्षण किया और उसमें वृद्धि की। उनके बाद चामुण्ड सामन्तसिंह और भूभट्ट गद्दी पर बैठे। इन सब राजाओं ने गुजरात की राज्यश्री में बहुत वृद्धि की, और अनहिल्ल-पट्टन भारत का एक प्रसिद्ध और समृद्ध नगर हो गया। देश-देश के व्यापारी और कामकाजी जनों से वह परिपूर्ण रहने लगा। चावड़ा वंश के बाद सोलंकी वंश के हाथ गुजरात की गद्दी गई। सोलंकियों का पहला राजा मूलराज था। मूलराज चावड़ा राजा भूभट्ट की बहिन का पुत्र था। मूलराज मामा को मार कर गद्दी पर बैठा था। इसने पश्चिम में कच्छ और काठियावाड़ तक अपनी सत्ता स्थापित की। दक्षिण गुजरात के राजा वारप का उसने हनन किया तथा अजमेर के चौहानों से सन्धि की। सोरठ के राजा गुहरिपु को भी उसने युद्ध में परास्त किया। इस राजा ने अनहिल्ल-पट्टन में त्रिपुर प्रासाद नामक प्रसिद्ध देवालय बनवाया। वृद्धावस्था में मूलराज वानप्रस्थी हो सरस्वती तीर पर श्रीस्थल में रहने लगा। वहाँ उसने औदीच्य, श्रीगौड़ और कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के अनेक परिवारों को देश-देश से बुलाकर और बड़ी-बड़ी जागीरें देकर गुजरात में बसाया। यहाँ उसने रुद्र महालय की स्थापना की, जिसे बाद में सिद्धराज ने पूरा किया। मूलराज के बाद चामुण्डराय अनहिल्ल-पट्टन की गद्दी पर बैठा। जिस समय की चर्चा हम कर रहे हैं, उस समय चामुण्डराय अनहिल्ल-पट्टन की गद्दी पर सुशोभित थे। इस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में गुजरात का राजा सबसे अधिक बलवान और शौर्यवान् प्रसिद्ध था। और गुजरात की राजधानी अनहिल्ल-पट्टन अति समृद्ध व्यापारिक नगर माना जाता था। परन्तु वास्तव में चामुण्डराय में सोलंकियों की राजधानी की मर्यादा रखने योग्य शक्ति न थी। वह एक दुर्बल मन और कच्चे कान का आदमी था। वह चारों ओर खटपटी खवासों और जी-हजूरियों से घिरा रहता था। ये लोग राजा को उल्टा-सीधा समझा कर अपना उल्लू सीधा करते थे। राज्य में अंधेरगर्दी चल रही थी। प्रजा का दु:ख-दर्द सुनने वाला कोई न था। राजा का मन भी राजकाज में नहीं लगता था। वह नाच-तमाशे और ऐश-आराम तथा अफीम की पिनक में गर्क रहता था। भांड, वेश्या, नट और ऐसे ही लुच्चे-लफंगे लोग सदा उसके पास भरे रहते थे। इनके खेल-तमाशे और जलक्रीड़ा से जो समय मिलता, उसे वह रनवास में व्यतीत करता था। प्रजा की दशा देखने-सुनने का उसे अवसर ही न मिलता था। फिर प्रजा और राज्य की उन्नति की तो बात ही क्या थी। राजा के दर्शन महीनों तक प्रजा को नहीं होते थे। जो लोग किसी काम से राजा से मिलना चाहते थे, उन्हें हुजूरिए लोग बातों ही में टरका देते थे-हुजूर रनवास में हैं, हुजूर का हुक्म नहीं है, अभी हुजूर को समय नहीं है। इसी भाँति राजा को अँधकार में रखा जाता था। राज्य में कोई सुधार नहीं
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