मूर्छा उनके लिए आशीर्वाद-स -स्वरूप थी। उससे उनका वेदनाओं से इतने काल के लिए पिण्ड छूट गया बहुत देर तक वे मूर्छा पड़े रहे। जब उनकी मूर्छा भंग हुई तो उन्होंने देखा, चिता जल चुकी है। लाल-लाल अंगारों में जली हुई सतियों के अवशेष बड़े डरावने प्रतीत हो रहे थे। उस समय गढ़ में वे ही अकेले जीवित पुरुष थे। कुत्ते, बिल्ली भी इस आपत्काल में घोघागढ़ को छोड़ गए थे। वे आँखें फाड़-फाड़कर चिता की चमकती चिनगारियों को देखने लगे। जिन बालिकाओं का उन्होंने विवाह कराया था, गोद में खिलाया था, नववधू के रूप में स्वागत किया था, उन सबकी जली हुई अस्थियों को यहाँ एकत्र देख उनका मस्तिष्क विकृत हो गया। वे लड़खराते पैरों से एक बार बुर्ज पर गए। उन्होंने देखा, यवन सैन्य अपनी व्यवस्था में संलग्न हैं और उसकी एक टुकड़ी दुर्ग पर चढ़ी चली आ रही है। सबसे आगे उन्होंने उस हज्जाम को देखकर पहचान लिया। अनेक बातों पर विचार करके, दौड़कर दुर्ग के द्वार खोल दिए और पुल भी गिरा दिया। फिर वह मन्दिर के गर्भ-गृह में जाकर अर्ध- मूर्च्छित अवस्था में पड़े रहे। अंग को हिलाने डुलाने की उनमें सामर्थ्य नहीं रही। यवन सैनिक गढ़ में घुस आए। उन्हें कहीं भी किसी बाधा का सामना न करना पड़ा। नन्दिदत्त अर्द्धमूर्च्छित अवस्था में पड़े हुए कभी-कभी शत्रुओं की खटपट सुन लेते थे। परन्तु उनसे उठा न गया और वे गहरी मूर्छा में पड़ गए। जब उनकी आँख खुली, नव प्रभात हो चुका था। प्रलय के आठ पहर बीत चुके थे। किसी जीवित प्राणी का घोघागढ़ में चिह्न भी न था। वे उठकर बाहर आए। चिता बुझ चुकी थी, परन्तु राख अभी गर्म थी। मन्दिर का ध्वज टूटा पड़ा था और महादेव की पिण्डी भग्न थी। राज-महल को लूट लिया गया था। पर ऐसा प्रतीत होता था कि शत्रु उस शून्य निर्जन दुर्ग में अधजली महाचिता में सैकड़ों जीवित मूर्तियों को जलता देख भयभीत होकर भाग गए थे। नन्दिदत्त ने बुर्ज पर खड़े होकर देखा कि शत्रु का वहाँ कोई चिह्न न था। नन्दिदत्त धीरे-धीरे दुर्ग से नीचे उतर रण-भूमि में आए। गिद्ध और गीदड़ लाशों को लथेड़ रहे थे। लाशें सड़ने लगी थीं। नन्दिदत्त ने बड़े यत्न से घोघाराणा का शव शवों के ढेर से ढूँढ़ निकाला। उसे पीठ पर लादकर एक शुद्ध स्थान पर रक्खा। स्नान कराकर शुद्ध किया और इधर-उधर से सूखा काष्ठ एकत्र कर अग्निसंस्कार कर दिया। इसके बाद उन्होंने अन्य क्षत्रियों की अन्त्येष्टि भी करना अपना कर्तव्य समझा। सबका चिता-दाह तो सम्भव नहीं था। उन्होंने सब पर मरुस्थली का रेत डालकर शवों को ढांप दिया तथा अंजलि में जल लेकर सबका मौन तर्पण किया। परन्तु अभी भी इस कर्मनिष्ठ ब्राह्मण का कर्तव्य पूरा नहीं हुआ था। ज्वर की ज्वाला और भूख-प्यास से उनका अंग-भंग हो रहा था। गत सोलह प्रहर से वह ब्राह्मण मरने वालों से कहीं अधिक यातना सह रहा था। फिर भी उसने दुर्ग में आकर गंगाजल से चिता को ठण्डा किया। फिर अस्थि और राख का संचय कर मानिक चौक ही में भूमि खोदकर उसे दाब दिया। इसके बाद उन सबका श्राद्ध-तर्पण कर सबकी आत्मा के लिए शान्ति-प किया। अब उनका ध्यान अन्त:पुर की ओर गया। एक बार घोघाबापा के वे शब्द -पाठ
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