“मैं अमीर का दूत हूँ। द्वार खोल दो, मुझे घोघाराणा से अमीर का सन्देश निवेदन करना है।" "द्वार नहीं खुल सकता, तू अपना सन्देश निवेदन कर।" "तो मेरी ओर से करबद्ध राणा से प्रार्थना करो कि नाहक राड़ मत ठानिए। अमीर को राह दे दीजिए। अमीर घोघाराणा पर चढ़ाई नहीं कर रहे हैं।" “करबद्ध प्रार्थना कौन करता है?" “मैं, अमीर का हज्जाम, तिलक, प्रार्थना करता हूँ।" “तू हज्जाम है। तेरा काम टहल करना है, राजाओं से बात करना नहीं, तू भाग यहाँ से।" “किन्तु मैं अमीर का दूत हूँ, यह अमीर की प्रार्थना है।" "तो उसका उत्तर यह मेरा बाण है।" गढ़वी ने तानकर बाण फेंका, वह अमीर के दूत के झण्डे को चीरता हुआ पार चला गया। गढ़वी ने कहा, “जा, भाग जा। दूत अवध्य होता है, इसी से छोड़ता हूँ। मरुस्थली के महाराज उसे मार्ग नहीं देंगे।" दूत चुपचाप पीछे लौट गया। रात हो गई। अमीर की सेना में सैकड़ों मशालें जला दी गईं। दूर-दूर तक अमीर की छावनी पड़ी थी। अमीर बहुत चिन्तित था। गढ़ पर चढ़कर उसे विजय करना असाध्य था। घेरा डालना और भी व्यर्थ था। वर्षों घेरा डाले रहने पर भी घोघागढ़ विजय नहीं हो सकता था। उधर अमीर वहाँ चौबीस घण्टे भी नहीं ठहरना चाहता था। उसके घोड़े और सिपाही सब भूखे-प्यासे थे। यहाँ न एक तिनका घास थी, न एक बूंद जल। अभी उसे मरुस्थली की दुर्गम राह पार करनी थी। साथ का पानी और रसद यहीं पर समाप्त कर देना वह नहीं चाहता था। अजेय घोघागढ़ ऊँचा सिर किए उसका उपहास कर रहा था और अमीर की प्रचण्ड सेना निरुपाय उसकी ओर ताक रही थी। अभी सूर्योदय में देर थी। गढ़ रक्षकों ने देखा, अमीर की वह अथाह सेना धीरे- धीरे दुर्ग का घेरा छोड़ इस प्रकार मरुस्थली में धंस रही है, जैसे साँप बांबी में फँसता है। गढ़वी ने दौड़कर राणा से कहा, "बापा, अमीर मरुस्थली में घुस रहा है।" घोघाबापा खड़े हो गए। उन्होंने तलवार उठा ली। क्रोध से थर-थर काँपते हुए कहा, “मैं सत्तर वर्ष से मरुस्थली का स्वामी रहा हूँ, आज तक इन सत्तर वर्षों में मेरी आज्ञा के बिना एक पंछी भी मरुस्थली में नहीं घुस सका है। अब यह गज़नी का अमीर घोघाबापा सिर पर लात रखकर, मेरी चौकी को लाँघ कर मरुस्थली में पैर धरेगा? यह मेरे जीते-जी हो नहीं सकता। जा बेटा, साका रचने की तैयारी कर, तब तक मैं आता हूँ।" गढ़वी का मुँह भय से सफेद पड़ गया। घोघाबापा के मंसूबे को उसने समझ लिया। उसने हाथ बाँध कर राजा की ओर देख कुछ कहने का उपक्रम किया, पर उसकी जीभ तालू से सट गई। राणा ने उसका अभिप्राय समझ जलती हुई आँखों से उसकी ओर देखा। गढ़वी ने डरते-डरते कहा, “बापू, शत्रु की सेना असंख्य है।" “सो इससे क्या हुआ रे? घोघाबापा क्या शत्रु को गिनकर अपना कर्तव्य पालन करेगा?"
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