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केसरिया बाना वृद्ध घोघाबापा युवा पुरुष की भाँति व्यस्त कार्यक्रम में जुट गए। उन्होंने गढ़वी राघव के साथ घोड़े पर सवार होकर सारे गढ़ का निरीक्षण किया। मरम्मत के योग्य स्थलों की मरम्मत प्रारम्भ कर दी। अनावश्यक द्वारों को ईंट-पत्थरों से भरवा दिया। खाई की सफाई कराई, पुल उठवा दिया और गढ़ी के द्वार बन्द कर दिए, केवल मोरी खुली रक्खी। गढ़ी के लुहारों की धोंकनी आग की चिनगारियों से रात-दिन मनोरंजन के खेल खेलने लगी। ढेर के ढेर तीर, बर्खे और तलवारें तैयार होने लगीं। राजपूत अपनी-अपनी ढाल-तलवार मांजकर साफ करने लगे। घोघाबापा के आदेश से गढ़ी के बाहर के सब गाँव उठकर गढ़ी में आ गए। खड़ी फसलें जला डाली गईं। कुएँ, तालाब, बावड़ी पाट दिए गए। अब पचास-पचास कोस तक अन्न, जल और घास का नाम-निशान न रह गया। गढ़ी में रोज जुझारू बाजे बजने लगे। मन्दिर में नित्य कीर्तन होने लगा। चौहान राजकुल की वधुएँ व्रत-उपवास और दान कर पुण्यार्जन करने लगीं। वृद्ध घोघाबापा नित्य सायं प्रात: गढ़ी के बुर्ज पर खड़े होकर दूर क्षितिज की ओर गज़नी के अमीर की सेना को व्यग्र भाव से देखा करते। उनके साथ बहुत से राजपूत, जन- साधारण और बालक भी होते थे। और एक दिन जिसकी प्रतीक्षा थी, वह सत्य हुआ। दूर क्षितिज में भयानक अजगर की भाँति सरकती हुई अमीर गज़नी की विकराल सैन्य चली आ रही थी। उस सेना का आदि-अन्त न था। घोड़ों के खुरों से उड़ाई हुई गर्द ने आकाश को ढांप लिया था। गर्द के बादलों में बिजली की भाँति सेना के शस्त्र चमक रहे थे। काले-पीले उछलते-दौड़ते घुड़सवार रूपी विविध मेघों के समान उमड़ती हुई इस म्लेच्छ सेना को बढ़ती आती हुई देख, घोघाराणा की आँखों से आग की चिनगारियाँ निकलने लगीं। उन्होंने चिन्तित भाव से सपादलक्ष की दिशा में दृष्टि फेरी। नन्दिदत्त अभी भी लौटकर नहीं आए थे। राणा ने अन्त:पुर का नाजुक दायित्व नन्दिदत्त को दिया था, अत: उनका अमीर से प्रथम ही पहुँच जाना अत्यन्त आवश्यक था। राणा विकल भाव से नन्दिदत्त की प्रतीक्षा करने लगे। देखते-ही-देखते अमीर की सेना ने इस तरह गढ़ी घेर ली, जैसे सांप कुण्डली मारकर बैठ जाता है। घोघागढ़ के कंगूरों पर धनुर्धारी योद्धा जम कर बैठ गए। अमीर की अगणित सैन्य निरुपाय थी। उसके हाथी, घोड़े गढ़ी के सीधे परकोटे पर चढ़ ही न सकते थे। दुर्जय पर्वत पर घोघागढ़ का वह अजेय दुर्गम दुर्ग सिर ऊँचा किए खड़ा था। पदातिकों को कमन्द के द्वारा दुर्ग पर चढ़ाना भी बेकार था। हज्जाम तिलक घोड़े पर सवार हो सफेद झण्डा फहराता हुआ अकेला दुर्ग की ओर अग्रसर हुआ। उस समय सूर्य अस्ताचल जाने की तैयारी में थे। शत्रु सेना से एक सवार को अग्रसर होते देख गढ़वी ने बाण सीधा कर ललकार कर कहा- “वहीं खड़ा रह। कह, क्या चाहता है?"