महोत्सर्ग कुछ ही देर में घोघाबापा प्रकतिस्थ हो गए । उनका क्रोध न जाने कहाँ विलीयमान हो गया। अभी तक सज्जन और सामन्त हाथ में नंगी तलवार लिए विमूढ़ खड़े गढ़ से बाहर जाती हुई गज़नी के अमीर की सांढ़नी को रौद्र नेत्रों से ताक रहे थे। घोघाबापा ने आकर पुत्र के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “सज्जन, इन जाते हुओं को क्या ताकता है, अब आते हुओं की ताक में रहना होगा। जा, तू इसी क्षण सांढ़नी लेकर दौड़ जा, नींद और विश्राम का समय नहीं है। अरे, सूर्य और चन्द्र के वंशधरों ने प्राणों के मोह और चमकीले कंकड़-पत्थरों के लालच में धर्म और कर्तव्य बेच दिया। मेरी मुलतान और लोहकोट की चौकी टूट गई। परन्तु अभी मैं हूँ, चिन्ता नहीं। मैं भगवान् सोमनाथ की चौकी पर यहाँ मरुस्थली के मुख पर मुस्तैद हूँ। गज़नी के अमीर की क्या मजाल जो मेरी मरुभूमि में पैर रक्खे। पर तू जा, अभी जा और झालौर पहुँचकर परमार को होशियार कर दे। जितनी जल्द पहुँच सके, पहुँच जा पुत्र, तुझे केवल जाना ही है, आना नहीं। यह तलवार अभी म्यान में मत करना। वहाँ से सीधा सोमनाथपट्टन पहुँचना और सर्वज्ञ की आज्ञा से वहीं भगवान् सोमनाथ के रक्षण में जूझना। अभी तो मैं ही हूँ, पर कदाचित् कोई अघट घटना घट जाए, तो तू अपने हाथ अमीर का सिर काटना, नहीं तो रणांगण में मर मिटना मेरे पुत्र।" इतना कहकर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए राणा ने दो कदम आगे बढ़कर सामन्त के सिर पर हाथ रखकर कहा, “पुत्र, तुझे भी जाना होगा। यद्यपि तेरे बिना मेरा प्राण व्याकुल रहेगा, पर मोह का राजपूत-जीवन में काम नहीं है। पहले कर्तव्य और फिर जीवन। पुत्र, तू जितनी जल्दी हो सके। अनहिल्ल पट्टन जा और चालुक्य राज परम परमेश्वर महाराज चामुण्डराय को गज़नी के इस दैत्य से सचेत कर दे। जा पुत्र, और तू वहीं गुर्जरेश्वर के आदेशानुसार भगवान सोमनाथ की रक्षा-सेवा करना। यहाँ लौट आने की चिन्ता मत करना।" इस बार वृद्ध भीष्म के अँगारे की भाँति जलते हुए नेत्रों में जल छलछला आया, पर उसे उन्होंने हँसकर नेत्रों ही में सुखा डाला। सज्जन ने हाथ बाँध कर कहा- “किन्तु बापू, आप...' "अरेरेरे”, घोघाबापा अट्टहास करके हँस पड़े, “तुझे आज इस क्षण मेरी चिन्ता हुई है! मेरी आज्ञा पाने के बाद? मैं अब नब्बे वर्ष का हुआ, तो क्या तूने ही मुझे रक्षित रक्खा है? अरे, क्या तू नहीं जानता, जो विश्वम्भर विश्व-भर का पालन करता है, वह सदैव घोघाबापा के अनुकूल रहा है, हा-हा-हा-हा” घोघाबापा फिर हँस पड़े। “जाओ, जाओ, एक-एक सांढ़नी ले लो और दो-दो सवार, बस।" इतना कहते-कहते घोघाबापा का कंठस्वर रूखा हो गया। स्नेह की आर्द्रता जैसे हवा में उड़ गई। उन्होंने होंठ सम्पुटित कर उँगली उठाकर दोनों को वहां से तुरन्त चले 66
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