कि लोहकोट के भीमपाल ने भी अजयपाल के परामर्श से अमीर को राह दे दी थी। मुलतान और लोहकोट का यह पराभव-वृत्तान्त घोघागढ़ पहुँच चुका था। परन्तु सज्जनसिंह और नन्दिदत्त ने यह वृत्तान्त घोघाबापा को उनकी वृद्धावस्था का विचार करके सुनाया नहीं था। परन्तु वे बड़ी बेबसी से आगे के समाचार जानने को व्यग्र हो रहे थे। एक दिन गज़नी के दूतों ने घोघागढ़ की पौर पर सांढ़नी रोकी। गढ़वी एक अधेड़ वय का चौहान योद्धा था। उसका नाम राघव था। आयु उसकी भी सत्तर को पार कर गई थी। उसने चिन्तित भाव से दूतों को वहीं रोककर सज्जनसिंह को सूचना दी। सज्जनसिंह ने नन्दिदत्त से परामर्श कर दूतों को गढ़ प्रविष्ट होने की आज्ञा दे दी। अब और विलम्ब न कर सज्जनसिंह, नन्दिदत्त और सामन्तसिंह को लेकर घोघाबापा के पास पहुँचे। इधर-उधर की बात छिड़ने के बाद नन्दिदत्त ने कहा, “महाराज, गज़नी का सुलतान गुजरात में घुसा चला आ रहा है। उसके पास अगणित बर्बर म्लेच्छों की सैन्य है। सुनते हैं, वह इस बार सोमपट्टन को आक्रान्त करेगा। सोमनाथ के ज्योतिर्लिंग को भंग करेगा।" घोघाबापा ने कहा, “वह आता है, आता है, यह तो सुनता हूँ, पर आता कहाँ है?" "महाराज, खबर तो पक्की ही है।" "अच्छा पक्की ही है तो आए, परन्तु कैसे आएगा? लोहकोट में मेरा भीमपाल चौकी पर मुस्तैद है, मुलतान में अजयपाल चाक-चौबन्द बैठा है। सपादलक्ष में मेरा धर्मगजदेव है। यहाँ मरुस्थली के नाके पर मैं स्वयं बैठा हूँ।" “पर बापा, वह मुलतान और लोहकोट को लांघकर घोघागढ़ की सीमा में पहुँच गया है।" "घोघागढ़ की सीमा में पहुँच गया है? यह कैसी बात? और अजय? भीमपाल?" "अजलपाल काका और भीमपाल दोनों ने मुँह में कालिख लगा ली है, उन्होंने बिना ही लड़े-भिड़े म्लेच्छ को मार्ग दे दिया।" “क्या कहा? अजयपाल ने मार्ग दे दिया।" "हाँ, महाराज।' नन्दिदत्त ने दुखित स्वर में कहा। “घोघाबापा ने लाल-लाल नेत्रों से सज्जन की ओर देखकर कहा, “और भीमपाल की क्या बात कही तूने?" “उस कायर ने भी अपने को बेच दिया।" घोघाबापा बोले नहीं। मौन होकर बैठे रहे। यही उनका स्वभाव था। क्रोध के आवेग में उनके होंठ जुड़ जाते थे। डरते-डरते सज्जन ने कहा, "बापू।" घोघाबापा ने लाल-लाल आँखें पुत्र की और फेरी। सज्जन ने नन्दिदत्त की ओर देखा। नन्दिदत्त ने शान्त स्वर में कहा- “महाराज, अमीर ने वहाँ से दूत भेजे हैं।" "दूत?" "हाँ महाराज, दूत अवध्य हैं, इसी से उन्हें बाहर रोककर सेवा में निवेदन करने
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