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कहा, “खुदा का हुक्म हमने तुझे भेज दिया, अब तू जान। खुदा का हुक्म मान या गज़ब की आग में अपने तईं और मुलतान को फूंक डाल। जा, फकीर को तंग कर।" औलिया फिर मौन हो गए। बोले ही नहीं। पार्षदों ने राजा को समझा-बुझाकर चलता किया। मुलतान लौटकर अजयपाल ने राज्य-परिषद् बुलाई। शिष्ट नागरिकों का दल बुलाया। सबसे परामर्श किया। बहुत विचार परामर्श हुआ। अन्त में निर्णय यही हुआ-युद्ध करना तो आत्मघात करना होगा। इससे हमारा सर्वनाश हो जाएगा। अमीर रुकेगा नहीं। भलाई इसी में है कि सुलतान को राह दे दी जाए। वह सिर्फ राह माँगता है, हम पर चढ़ाई नहीं करता। औलिया ने ठीक कहा है। वे जाग्रत पीर हैं। हमारे शुभचिन्तक हैं, निर्लोभ हैं, खुदापरस्त हैं। उनका हुक्म खुदा का हुक्म है। अमीर के सैन्य सागर के सामने अजयपाल की सेना एक बूंद के बराबर भी नहीं थी। यदि वह लड़ता तो उसका, उसकी सेना का और मुलतान का सर्वनाश निश्चित था। अपना सर्वनाश करके भी वह सुलतान को रोक नहीं सकता था। फिर अपना सर्वनाश करने से क्या लाभ? परन्तु देश और धर्म के इस प्रबल शत्रु को कैसे वह देश में घुसने दे? यह भी एक प्रश्न था। यह उसके क्षत्रियत्व का प्रश्न था। मरुस्थली के द्वार पर घोघागढ़ में उसके दादा घोघाबापा बैठे हैं। लोहकोट में भीमदेव हैं। सपादलक्ष में महाराज धर्म गजदेव हैं। ये सब सम्बन्धी वीर और तेजस्वी पुरुष हैं, ये सब उसकी कायरवृत्ति देख क्या कहेंगे? महाराज अजयपाल को कोई छोर नहीं मिला। वह सोचने लगे, अवश्य ही अमीर को राह देना पाप है, परन्तु पाप का भागी क्या मैं ही हूं? यह अभागा भारत देश क्यों खण्ड-खण्ड है। क्यों नहीं एक सूत्र में संगठित है। सब लोग छोटे-छोटे राजा बने बैठे हैं। वे सब अपनी ही अकड़ में मस्त हैं। इतना बड़ा विशाल भारत देश कैसे विदेशी लुटेरों के हाथ लूटा जाता है। यह तो हम देखते ही हैं, परन्तु सब हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। कोई किसी की नहीं सुनता, फिर मैं ही क्या करूं? मेरी शक्ति ही कितनी, हैसियत ही क्या? पाप ही है तो सबका है। मैं यदि सुलतान का विरोध करता हूँ, तो मेरा तो सर्वनाश होगा ही, यह समृद्ध मुलतान शहर भी लूट और आग की भेंट होगा। यह क्या पाप नहीं होगा? मैं जिस देश का राजा हूं, क्या उसे बचाना मेरा धर्म नहीं है? क्या वह पाप इस पाप से भी बड़ा होगा? अन्त में अजयपाल ने इसी में भलाई समझी कि वह सुलतान को राह दे दे। फिर उसका परिणाम जो हो सो हो।