थे। चारों ओर ज़ोर से बाजे बज रहे थे। खेमे के सामने मैदान में अनेक मनोरंजक खेल खेले जा रहे थे, जिन्हें जनता और सैनिक उत्साह और आनन्द से देख रहे थे। कहीं भांड और हँसोड़ अपने करतब दिखा-दिखाकर लोगों को हँसा रहे थे। कहीं पहलवान कुश्ती लड़ रहे थे, कहीं नट अपने अंग मरोड़ रहे थे, कहीं तलवारबाज़ी, नेजेबाज़ी और घुड़सवारी का चमत्कार दिखाया जा रहा था। कहीं लौंडे ज़नाने कपड़े पहने नाच-गा रहे थे। डफ की ताल पर उनकी आँखों के पलक और पैर एक साथ ही उठते-गिरते थे। लोग खुश होकर तालियाँ पीट रहे थे। अमीर खुश किन्तु गम्भीर था। वह उस भारी जन-रव और ऐश्वर्य के बीच जैसे डूबा जा रहा था। जब सलामी और नज़राने की सब रस्में पूरी हो चुकीं तो उसने जलद-गम्भीर स्वर में एक हाथ ऊँचा करके कहा, “मैं अमीर महमूद, खुदा का बन्दा, वही कहूँगा जो मुझे कहना चाहिए। रसूले पाक और खुदा के नाम पर, जिसके समान दूसरा कोई नहीं है, मैं अमीर महमूद, खुदा का बन्दा, आज ईद मुबारक के साथ तुमसे, जो मेरी रकाब के जांनिसार साथी हैं, और जिनके घोड़ों की टापों ने आधी दुनिया रौंदी है, वही कहूँगा जो मुझे कहना चाहिए। हम चल रहे हैं, अपनी सबसे बड़ी मुहिम को फतह करने, जिसकी इन्तज़ारी फिरदौसी और अलबरूनी उस काफिर ज़मीन पर कर रहे हैं, जिसकी हर शै दीनदारों के लिए है। दोस्तो, मैं जानता हूँ, तुम्हारी तलवारों की धार तेज़ है, तुम्हारे घोड़े तरोताज़ा हैं, और तुम्हारे घोड़ों की ज़ीनें, जिन्हें तुम पिछली बार चाँदी-सोने से भर लाए थे, खाली हो रही हैं और तुम मेरे दोस्तो, उन्हें फिर से भरने के लिए बेचैन हो। मैं तुम्हें दुआ देता हूँ कि तुम्हारी मुराद वर आए। और तुममें से प्रत्येक अपनी जीन की लम्बी थैलियों को चाँदी-सोना और जवाहर से भरकर और अपने घोड़ों की लगाम से चार-चार गुलाम बाँधकर घर लौटे-आमीन!" जय-जयकार और तालियों की गड़गड़ाहट से दिशाएँ काँप उठीं । बड़े-बड़े नक्कारे और ढोल गरज उठे। तलवारें झनझना उठीं। हज़ारों-लाखों कण्ठों से निकला, “आमीन, आमीन!" इसके बाद सब सरदारों, सेनापतियों, वीरों और पदाधिकारियों को खिलअत इनाम बाँटे गए, विद्वानों का मुहरों और पदवियों से सम्मान किया गया। दरबार बर्खास्त हुआ। अमीर की शाहखर्ची, शान और जलाल का बयान हर मुँह से सुनाई पड़ रहा था। वह ईद गज़नी में उमंग, उत्साह, विजय और सफलता की ईद थी।
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