सब परिचित, अधीन एवं मित्र सरदारों, कबीलेदारों और सम्बन्धियों को साग्रह निमन्त्रण भेजे थे। ये निमन्त्रण गज़नी के प्रधान मुल्लाओं द्वारा ले जाए गए थे, जिन्होंने धर्म का जुनून चढ़ाकर लोगों को जेहाद का सवाब लूटने को बहुत उत्साहित किया था। अधीन सरदारों पर तथा हाकिमों पर उसने ताकीदी-परवाने जारी किए थे। इसके फलस्वरूप तीस हज़ार अजेय घुड़सवार तुर्क, बारह हज़ार तीखे स्वभाव वाले अरब, और इतने ही अचूक निशाना लगाने वाले ईरानी गज़नी में आ जुटे थे। ईद की नमाज़ अदा करने के लिए सुलतान की सवारी बड़ी धूमधाम से जामा- मस्जिद की ओर चली। सबसे आगे तुर्की घुड़सवारों का रिसाला अपनी ज़र्कवर्क पोशाक में था, उसके पीछे उँटों पर नौबतखाना था। इनके पीछे अरब सवारों की टुकड़ियाँ और इनके बाद तातारी योद्धा नंगी तलवार लिए पैदल चल रहे थे। उनके बीच में अमीर महमूद बहुत ऊँचे काले घोड़े पर सवार था। वह बहुधा बड़ी देर तक चुपचाप बैठा रहता था। अमीर की पोशाक गहरे उन्नावी रंग की विलायती बानात की थी, जिस पर हिन्दुस्तान के कारीगरों के हाथ का सुनहरा काम किया हुआ था। वह बड़े गौरवपूर्ण ढंग से घोड़े पर बैठा, बिना इधर- उधर देखे अविचल भाव से आगे बढ़ रहा था। यद्यपि अभी उसकी आयु पैंतालीस ही वर्ष की थी, परन्तु कठिन योद्धा-जीवन और गहन संघर्ष के चिह्नस्वरूप गहरी रेखाएँ उसके मस्तिष्क एवं चेहरे पर स्पष्ट दीख रही थीं। एक दृष्टि देखने ही से वह एक अविचल, एकनिष्ठ और दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष प्रतीत होता था। सुलतान ने जामा मस्जिद पहुँच मस्जिद के द्वार पर एक ऊँट की कुर्बानी दी, फिर वह मस्जिद में इमाम के दक्षिण पाश्र्व में बैठ गया। इमाम ने उसके नाम का खुतबा पढ़ा और फिर सुलतान ने एक लाख दीनदारों के साथ ईद की नमाज अदा की।
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