बाग, उपवन मीनारों वाली मस्जिदें, महल, बड़े-बड़े हौज़, हम्माम, तालाब, बावड़ियाँ, और वीथी बनवाई थीं। महमूद ने भारत की तीसरी विजय से लौटकर गज़नी नगर की खूब मज़बूत शहरपनाह बनवाई। भारत के दुर्गों के घेरे में, उसे प्राचीरों का महत्त्व विदित हो गया था, इससे उसने भारत के तीसरे आक्रमण से लौटकर बहुत मज़बूत चहार-दीवारी गज़नी के चारों ओर बनवाई थी। इस समय प्रबल से प्रबल शत्रु भी गज़नी की कुछ हानि नहीं कर सकता था। गज़नी की सुरक्षा के लिए चारों ओर की पहाड़ियों पर उसने छोटी-छोटी गढ़ी बनवाई थीं, जहाँ आवश्यक सेना हर समय रहती थी। यद्यपि सुलतान की स्थायी सेना अधिक न थी, परन्तु आवश्यकता होने पर वह जितनी चाहे उतनी साहसी बर्बरों की सेना एकत्र कर सकता था। उसकी कमान के नीचे लड़ने को प्रत्येक सेनानी सोत्साह रहता था। वह जानता था कि लूटपाट का और कहीं ऐसा सुयोग लग ही नहीं सकता है। इससे आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों के अनगिनत डाकू उसकी सेना में खुशी से भर्ती हो जाते थे। स्थायी सैनिकों को सुलतान ने वेतन के स्थान पर धरती दे रखी थी। वे शान्ति-काल में हल लेकर भूमि जोतते और युद्ध-काल में विकराल तलवार पकड़कर विकट युद्ध करते थे। इन लोगों में 'ममलूक' लोगों की पलटन अपनी वीरता तथा शौर्य में विख्यात थी। ममलूक सेना के हज़ार अजेय योद्धा, मूल्यवान अरबी घोड़ों पर सवार होकर महमूद के चारों ओर एक जीवित दुर्जय दुर्ग के रूप में सदा साथ रहते थे। इनके सिवा वक्षु नदी के उस पार के तुर्कों की घुड़सवार सेना भी अजेय थी। इस सेना में पचपन हज़ार बांके और मर मिटने वाले तलवार के धनी और धनुर्धर थे। अफगानों और खिलजियों की सेना का नम्बर इनके बाद था। यह सेना भी, सब भाँति के शस्त्रों से सज्जित रहती, और युद्ध में सदैव अग्रभाग में लड़ती थी। इस सेना के पठान और कद्दावर उजबक जब लम्बी-लम्बी दाढ़ियों के बीच दाँतों से घोड़े की लगाम पकड़े , भारी-भारी तलवारें लेकर आँधी की भाँति शत्रु पर टूट पड़ते, तब बड़े-बड़े धैर्यवानों के छक्के छूट जाते थे। अरबों की भी एक चुनी हुई सेना महमूद की कमान में थी। ये बड़े निर्दय और क्रूर सिपाही होते थे। तलवार की मार में इन्हें कोई योद्धा न पा सकता था। महमूद इस सम्पूर्ण संयुक्त सेना का सेनापति था। इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तुर्क लोगों की अधिकांश सेना मुसलमान न थी, मूर्तिपूजक थी। महमूद एक प्रकृत योद्धा था, वह अपनी सेना को इसलिए नहीं रखता था कि वह उन्हें बैठाकर माल- मलीदे खिलाए । वह सदैव अपनी सेना को चुस्त और सोत्साह रखता, उसे साहसिक आक्रमणों में नियोजित करता रहता था। सुलतान के दरबार में ईरानी लोगों का भी खासा प्राबल्य था। अबुल अब्बास उसका एक शक्तिशाली वज़ीर था। वह अपढ़ था, किन्तु राजनीति और प्रबन्ध में बड़ों-बड़ों के छक्के छुड़ा देता था। उसने सरकारी काम-काज के कागज़ात तथा प्रजा की अर्जी आदि फारसी भाषा में तथा सम्वाद अरबी में लिखने की व्यवस्था की थी। महमूद के दरबार में कवियों, इतिहासकारों तथा विद्वान् दार्शनिक जनों का भी सम्मान होता था। फिरदौसी और अलबरूनी जैसे विद्वानों का वह पोषक था। उसने देश- देश की पुस्तकों का एक बहुत भारी संग्रह गज़नी के राजकीय पुस्तकालय में किया था। इस
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