बिना द्वार का दुर्ग विदेशियों के लिए भारत सदैव ही बिना द्वार का दुर्ग रहा है। मुहम्मद के जन्म से भी लगभग पाँच सौ वर्ष पहले, ईसा की पहली शताब्दी में अरब और ईरान के द्वारा ही भारतीय व्यापार का सिलसिला यूरोप तक फैला हुआ था। भारत के पूर्वी और पश्चिमी समुद्र-तटों के बन्दरगाह जैरूचाल, कल्याण, सुपारा और मालाबार के आसपास इन अरब व्यापारियों की भी बड़ी-बड़ी बस्तियाँ बसी हुई थीं। यूनान और रोम के जो जहाज़ भारत आते थे, उनके नाविक अरब ही होते थे। भारत और चीन का व्यापार भी इन्हीं अरबों के हाथ में था। उस काल के ये अरब सीधे-सादे, वीर, साहसी, विश्वासी और दृढ़प्रकृति के होते थे। भारत-निवासियों से वे खूब हिलमिल कर रहते थे। भारत में उनकी बस्तियाँ खुशहाल थीं। मिस्र, फिलस्तीन, काबुल, असीरिया आदि देशों के साथ भी भारत के ऐसे ही व्यापारिक सम्बन्ध थे। मिस्र के प्राचीन बादशाह ने भारत से व्यापार की सुविधा रहने के ही विचार से लालसागर के किनारों पर अनेक बन्दरगाहों की रचना की थी और ईरान के बादशाहों ने भी फ़ारस की खाड़ी में कई बन्दरगाह इसी इरादे से बनवाए थे। मिस्र के प्रधान बन्दर सिकन्दरिया में हिन्दुओं की अच्छी आबादी थी। अरबी मल्लाह भारतीय नौकाओं पर नौकर रहते थे। इस्लाम का जन्म होने पर भी अरबों का वैसा ही सम्बन्ध भारत से कायम रहा। परन्तु इनमें अब नई सभ्यता, नया जीवन और नए आदर्शों का समावेश हो चला था। यह बात हम ईसा की सातवीं शताब्दी के लगभग की कह रहे हैं। इस समय तक तमाम अरब, तातार, तुर्किस्तान और चीन की पूर्वी सरहद तक, तथा पश्चिम में मिस्र-कर्थेज तथा समस्त उत्तरी अफ्रीका पर इस्लाम की फ़तह हो चुकी थी। मुसलमानों ने निर्दयता से प्रबल रोमन साम्राज्य को चीरफाड़ डाला था और वे स्पेन में जा धमके थे। उनकी विजयिनी सेनाएं जंगलों, मैदानों, पहाड़ों और नदियों को पार करती हुईं भारत की सीमा तक पहुँच गई थीं। और उन्होंने ईरान के बेड़ों को जल-समाधि देकर हिन्द महासागर पर अपना एकाधिपत्य जमा लिया था, तथा हिन्द महासागर के व्यापार को हथिया लिया था। इस समय, जबकि मुस्लिम सत्ता मध्य एशिया और यूरोप में अपनी जड़ें जमा रही थी, भारत में सम्राट हर्षवर्धन का देहान्त हो चुका था। पुरानी और नई जातियों ने नवीन राजपूत शक्ति को जन्म दिया था, जिन्होंने मध्य भारत तथा उत्तर-पूर्वीय भारत में अनेक खण्डराज्य स्थापित कर लिए थे। उनमें परस्पर युद्ध होते रहते थे। उनपर किसी बड़ी शक्ति का नियन्त्रण न था। पुराने साम्राज्यों की राजधानियां खण्डहर हो गई थीं। हिन्दू कौम धर्म और जात-पांत के पचड़ों तथा अंधविश्वासों में फंसी थी। राजाओं की भाँति ये धर्मसंघ भी परस्पर लड़ते-भिड़ते रहते थे। सन् 712 में एक बीस वर्ष का साहसी मुसलमान युवक केवल छह हज़ार घुड़सवार साथ लेकर बिलोचिस्तान की विस्तृत मरुभूमि को पार करता हुआ बिना किसी रोक-टोक
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