तब कृष्णस्वामी खीझकर कहते, “तुम्हारी-जैसी क्यों नहीं हैं, तुम्हीं कहो।” इस पर रमाबाई बहुत धूम-धाम करती, और शूद्रा दासी मुँह छिपाकर हँसती। इतना होने पर भी वह दासी रमाबाई की बड़ी सेवा करती थी। उसके बिना उनका काम चलता न था। बालक शोभना के साथ बहुत हिल-मिल गया। कृष्णस्वामी ने शोभना को पढ़ाना आरम्भ किया तो वह बालक भी पढ़ने लगा। वह कृष्णस्वामी के निजी कक्ष में नहीं आ सकता था। वे उसे पढ़ा भी नहीं सकते थे। परन्तु इससे क्या। वह कक्ष से बाहर दूर बैठकर पढ़ता, समय पर शोभना उसे पढ़ने में सहायता करती। बालक बुद्धि का चैतन्य और कुशाग्र था। शोभना उसके बिना क्षण-भर भी नहीं रह सकती थी। माता-पिता का कोई आदेश न मान, वह सदा उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती। अपना आहार उसे खिलाती। बाद में शोभना का ब्याह हुआ। वह विधवा हुई, तो यह बालक उसका और भी सहारा हो गया। शोभना ने जाना भी नहीं कि वैधव्य क्या है। रमाबाई को पुत्री के साथ उस दासी-पुत्र की इतनी घनिष्ठता रुचती न थी। पर शोभना निषेध करने पर रो-रोकर घर भर देती, रूठती। बाल-विधवा पुत्री के दुःख का विचार कर रमाबाई तरह दे जाती। दिन बीतते चले गए और शोभना और वह दासी-पुत्र धीरे-धीरे यौवन की देहरी पर आ पहुँचे। अवसर पाकर भगवान् कुसुमायुध ने दोनों के मन में छूमन्तर कर दिया तो दोनों परस्पर प्रगाढ़ प्रेम में आसक्त हो गए। इसी समय अचानक वह दासी मर गई। इस दुःख पर दोनों ने संयुक्त आँसू बहाए। शोभना अब और भी अधिक उसे प्यार करने लगी। रमादेवी की आँखों से यह प्यार का लेन-देन छिपा नहीं रहा। उसने दोनों की घनिष्ठता में बाधा उपस्थित की। उसने पुत्री की ताड़ना की और बालक की भी। ताड़ना बहुत बढ़ गई और अन्त में असह्य हो गई। बालक घर से बाहर रहने लगा। इन दिनों प्रभास में एक दण्डी बाबा रहते थे। बाबा बहुत बूढ़े थे। वे व्याकरण, ज्योतिष और दर्शन के भारी पण्डित थे। संयोगवश बालक की दण्डी बाबा से मुठभेड़ हो गई। उसे अत्याचार-पीड़ित और अनाथ जान, बाबा ने उस पर दया की। उसे पढ़ाना- लिखाना शुरू किया। बालक व्याकरण, काव्य और ज्योतिष मनोयोग से पढ़ने तथा दण्डी बाबा की सेवा करने लगा। घर से अब उसका सम्बन्ध भोजन और शयन का रह गया। वह चोर की भाँति बहुत देर से रात को आता और ठण्डा-बासी जो मिलता, खाकर पड़ रहता। अपने पढ़ने की तथा दण्डी बाबा के साथ आने-जाने की बात उसने किसी ने नहीं कही। केवल शोभना से कोई बात छिपी न थी। समय आगे बढ़ता गया। शोभना को उसका घर से दूर-दूर रहना अधिक और अधिक खलने लगा। वह अनुनय-विनय से उसे घर में बाँध रखने की बहुत चेष्टा करती। एक दिन वह भगवान सोमनाथ के दर्शन को महालय के भीतरी पौर में चला गया, तो पुजारियों ने धक्के देकर उसे निकाल दिया। इस बात पर शोभना बहुत रोई। संक्षेप में, ब्राह्मण के घर में शूद्र युवक का रहना असम्भव हो गया। अपमान और अवज्ञा सहते-सहते उसका मन विद्रोह और क्रोध से भर गया। एक दिन उसे मन्त्र पढ़ता देख कृष्णस्वामी क्रुद्ध हो तलवार लेकर उसे मारने दौड़े। अन्ततः उसे शोभना से विदा लेनी पड़ी और वह शोभना से विदा लेकर, उसे बहुविध आश्वासन देकर, उसे आँसुओं से भरी छोड़कर घर से चल पड़ा हुआ। कृष्णस्वामी ने मन का मोह छिपा, राजनियम का आश्रय लिया, कहा, “दासी का पुत्र क्रीत
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/५२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।