महाकाल-मोचन कार्तिक की महा अमावस्या थी। आज कालभैरव की मूर्ति को समुद्र-स्नान के लिए अंधगुहा से निकाला गया था। यह साधारण घटना न थी। इससे आसपास के ग्रामों तक में खलबली मच गई थी। प्रतिवर्ष ही ऐसा होता है। कार्तिक की अमावस्या महाकाल-रात्रि मानी जाती है। उसे तन्त्र-साधक यमदंष्ट्रा-गह्वर कहते हैं। इसी दिन वर्ष में एक बार अर्द्धरात्रि को कालभैरव समुद्र स्नान करते हैं। और इसी समय वर्ष में एक बार सर्वसाधारण को कालभैरव के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। इसी से उसके दर्शन को बहुत-बहुत लोग उत्सुक रहते हैं, परन्तु भयभीत भी कम नहीं रहते। लोगों का विश्वास है कि इस दिन कालभैरव जिसपर प्रसन्न हो जाएँगे उसके सब संकट तत्काल कट जाएँगे। पर इसके लिए उसे रुद्रभद्र से मन्त्र लेना पड़ता है, और वह मन्त्र उसे उस समय तक निरन्तर मौन होकर जपना पड़ता है जब तक कालभैरव को स्नान कराकर अंधगुहा में बन्द न कर दिया जाए। एक क्षण को भी होंठ बन्द हुए कि मृत्यु आ सकती है। यह कोरी कल्पना न थी। हज़ारों लोगों के देखते-देखते इस अवसर पर अनेक जन, पट से मर गए थे। इसी से लोग भय, औत्सुक्य और आशंका के झूले में झूलते हुए कालभैरव के दर्शन को आते थे। लोगों के सब काम-काज बन्द थे। सांझ से ही पुत्रवतियों ने अपने घर के द्वार बन्द कर लिए थे। और अपने-अपने बच्चों को घर के भीतर ताले में बन्द कर रखा था। अधिक साहसी जन ही रुद्रभद्र से मन्त्र लेकर महाकाल भैरव के दर्शन को आते थे। फिर भी काफी भीड़-भाड़ थी। हज़ारों तान्त्रिक भाँति-भाँति के कवच धारण कर मन्त्र-पाठ कर रहे थे। उनके केवल होंठ हिल रहे थे, शब्द नहीं होता था, न कोई एक-दूसरे की ओर देख रहा था। ठीक अर्द्धरात्रि के समय महाकालभैरव की मूर्ति अंधगुहा से बाहर निकाली गई। मूर्ति बड़ी विशाल काले पत्थर की थी। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। मूर्ति का पेट बहुत भारी था। वह बैठी मुद्रा में थी। मूर्ति की आँखों के बड़े-बड़े पलक नीचे झुके हुए थे, जो बड़े डरावने लग रहे थे। मोटे-मोटे होंठों में दो नुकीले दाँत बाहर चमक रहे थे। मूर्ति जंजीरों से जकड़ी हुई थी, जिन्हें एक हज़ार मनुष्य पकड़े हुए थे। लोगों का विश्वास था, यदि ऐसा न किया गया तो मूर्ति दासत्व से मुक्त होकर भाग जाएगी और सब लोगों का विध्वंस कर डालेगी। मूर्ति के चारों ओर अन्तेवासी तान्त्रिकगण नंगी तलवारें लिए चल रहे थे। सबके होंठ हिल रहे थे, और वे सब कवच का पाठ कर रहे थे। बालक और स्त्री का तो वहाँ चिह्न भी न था। एक क्षण को भी किसी के होंठ रुक नहीं रहे थे। अनेक तान्त्रिक दूर देशों से यात्रा करके आए थे। इन साधकों के हाथ में एक पतली-सी लकड़ी थी, उसपर रंग-बिरंगे धागे लिपटे हुए थे। प्रत्येक धागे में एक-एक गाँठ लगी थी। उन गाँठों में भूत-प्रेत बंधे थे। इन भूत-प्रेतों को उन्होंने वर्ष-भर में मन्त्र-बल से आवेशित लोगों पर से उतार-उतार कर बाँधा था। ये दुष्ट प्रकृति के भूत-प्रेत बहुधा लोगों पर, विशेषकर स्त्रियों और बच्चों पर, आक्रमण करते हैं। सुन्दरी युवतियों पर वे मोहित हो जाते हैं। वे स्त्रियाँ जब आवेशित होती हैं तब हँसती, रोतीं, बकतीं, चिल्लातीं और उन्मत्त की भाँति चेष्ट करके बेहोश हो जाती हैं। आज
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