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मन्दिर ढहा दिया था, वह हिन्दुओं ने फिर से बना लिया हो। मैंने यह साफ तौर पर देखा है कि भीमदेव के 100 साल बाद के एक शिलालेख पर यह खुदा है, और कुछ दूसरे लेखों से भी पता लगता है कि मन्दिर भीमदेव ने बनवाया था। दूसरा कोई इस प्रकार का नहीं बना सकता था। क्योंकि यह राजा सोमनाथ का एकमात्र रक्षक तथा गुजरात का तत्कालीन राजा था। इसी से मैं इसे प्राचीन मन्दिर नहीं, बल्कि भीमदेव का मन्दिर समझता हूँ। सम्भवतः प्राचीन मन्दिर खाड़ी के एकदम किनारे पर, जिसे वहाँ के लोग हीरा कोट कहते हैं, वहीं होगा। कैप्टेन विलबर फोर्स बैल काठियावाड़ के इतिहास में फार्बस की बात मानकर कहते हैं कि सिद्धराज जयसिंह ने भीमदेव के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। पर इस बात को अधिकृत रूप से वह नहीं कहते। पोस्टन का विचार है कि वह मन्दिर वैसा ही था, जैसा महमूद ने उसे छोड़ा था-पर यह बात सही नहीं है। पोस्टन का मत है कि कदाचित् यह मन्दिर पहले बौद्धों का मठ था, पीछे शैवों ने उसे अपना लिया। अपनी बात के समर्थन में उनका यह कहना है कि मन्दिर में कहीं भी बौद्ध चिह्न नहीं है। परन्तु पोस्टन का तर्क यह है कि मन्दिर के निर्माण और स्थापत्य तथा सजावट में सभी पुरुष मूर्तियों में कहीं भी हिन्दू चित्रण नहीं है, बौद्ध चित्रण है। वे अधिकांश में बौद्ध संस्कृति-युक्त हैं। डॉक्टर जॉन विलसन भी इससे सहमत नहीं हैं। वह इस मन्दिर को भी गुजरात के अन्य शैव मन्दिरों की भाँति शैव निर्मित ही मानते हैं। बड़ा मन्दिर, जिसका मुख पूर्व दिशा में है, उसमें एक विशाल बन्द भवन था, जिसे 'गुहा-मण्डप' कहते थे। इसके तीन प्रवेश-द्वार थे, जिनमें प्रत्येक में ऊँचे महराब बने थे, और शिवलिंग हॉल के पश्चिमी भाग में था, जिसके चारों तरफ प्रशस्त प्रदक्षिणा थी। इसमें प्रकाश के लिए ऊपर बड़े-बड़े रोशनदान तीनों भागों में थे, और बाहर से उसका दिखाव बहुत भव्य प्रतीत होता था। पश्चिम दिशा की महराब अब गिर गई है और शेष तीनों महराबें भी ढह गई हैं। यह अधिक सम्भव है कि मुढेरा में जो सूर्य का मन्दिर है उसी की भाँति इसमें भी एक सभा-मण्डप रहा हो, जिस पर मायापुरी मस्जिद की छत बनाई गई है। असल छत अब गिर गई है और मुसलमानों ने उसे जल्दी में फिर से बनाया हो। खम्भे भी खड़े किए हैं, और गुम्बद बनाकर छत के बाहर के हिस्से को मस्जिद का रूप दे दिया है। जो उसके वास्तविक खम्भों तथा आधारों से, जो आबू के तेजपाल के ऋषभदेव मन्दिर के ढंग के हैं, जो अब बहुत कम बचे हैं तथा ध्वस्तप्राय हैं। समुद्र की नमकीन हवा से वे पत्थर गल गए हैं। अब सिवाय प्रदक्षिणा के–जो बच रही हैं-सब जगह की खुदाई भी मिट गई है। वर्तमान खम्भे, उन्हीं पुराने खम्भों की जगह पर खड़े प्रतीत होते हैं। सतह की दशा देखकर प्रतीत होता है कि यह बिना छत के बरसों तक मेह और पानी में खड़े रहे। तब यह बिल्डिंग बनाई गई है। लिंग के भीतर के भाग भी खराब हो गए हैं,पर छत की प्राचीन कारीगरी अभी है। पीछे की दीवार जो टूट गई थी,वह किसी तरह बना दी गई है। लिंग के दरवाज़े के पत्थर का फ्रेम भी फिर से बनाया गया है। फर्श पर एक चबूतरा अभी है। कदाचित् यहां नन्दी रहा होगा। नन्दी के टुकड़े बाहर पड़े हैं। मन्दिर के बाहरी भाग में खासकर महालय के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में खुदी हुई मूर्तियों की दशा इतनी खराब हो गई है, कि उनका पहचानना ही कठिन है। इनमें अनेक देवी और दासियां हैं। दक्षिण के पूर्वी भाग की एक