मौलिक में भी दो भेद हैं। प्राचीन मौलिक तो योनि के चित्र की, दूसरे वास्तविक योनि की पूजा करते हैं। पूजा के समय वे मद्य, माँस, मीन आदि का भक्षण करते हैं। समयिन ये क्रियाएँ नहीं करते। भैरवी चक्र के समय वर्ण भेद का सम्बन्ध-भेद नहीं रहता-माता, पुत्री, पत्नी, शूद्र, चाण्डाल और ब्राह्मण सब समान होते हैं।12 “कविराज शेखर नवीं शताब्दी के अन्त के आसपास हुआ। उसने 'कपूरमंजरी'लिखा है। उसमें भैरवानन्द के मुँह से कौल मत का इस प्रकार वर्णन कराया गया है- मंताणं तंताणं णकिंपि जाणे झाणं चणो किंपि गुरुपसाओ। मज्जं पिआमो महिलं रमामो मोक्खं च जामो कुल मग्गलग्गा॥22॥ अविअ- रण्डा-चण्डा दिक्खिआ धम्म दारा मज्जं मंसं पिज्जऐ खज्जऐ । भिक्खा भोजं चम्म खण्डं च सेज्जा कोलोधम्मो कस्स णो भाइ रम्मो॥23॥13 (हम मन्त्र-तन्त्र आदि कुछ नहीं जानते, न गुरु-कृपा से हमें कोई ज्ञान प्राप्त है। हम लोग मद्यपान और स्त्री-गमन करते हैं, तथा कुलमार्ग का अनुसरण कर मोक्ष पाते हैं।) पुनश्च- (कुलटाओं को दीक्षित कर हम धर्मपत्नी बना लेते हैं। हम लोग मद्य पीते तथा माँस खाते हैं। भिक्षान्न ही हमारा भोजन और चर्मखण्ड ही शय्या है, ऐसा कौल धर्म किसे प्रिय नहीं?) गणेश-पूजा गणेश-पूजा भी इस काल से प्रथम ही प्रारम्भ हो चुकी थी। गणेश या विनायक रुद्र के गणों का नायक था। याज्ञवल्क्य-स्मृति में गणेश और उसकी माता अम्बिका की पूजा का वर्णन मिलता है। 14 परन्तु न तो चौथी शताब्दी से पूर्व की कोई गणपति की मूर्ति मिली है, न तत्कालीन शिलालेखों में इसका उल्लेख मिलता है। इलौरा की गुफाओं में कुछ देवियों की मूर्ति के साथ गणपति की मूर्ति बनी है। ई. स. 862 के घटियाला के स्तम्भ में गणेश की चार मूर्तियाँ बनी हैं। इन मूर्तियों में सब में सूंड़ बनी है। नहीं कहा जा सकता, गणेश के मुख में सूंड़ की कल्पना कब से आविष्कृत हुई है। 'मालतीमाधव' में भी गणेश की सूंड का वर्णन है। गाणपत्यों की भी अनेक शाखाएँ है। सब देवों की भाँति गणपति की भी पूजा होती है। 15 कार्तिकेय स्कन्द शिव के द्वितीय पुत्र स्कन्द कार्तिकेय की पूजा भी प्राचीन है। रामायण में16 उसे गंगा का पुत्र कहा गया है। स्कन्द देवताओं का सेनापति है। पंतजलि के महाभाष्य में शिव और स्कन्द की मूर्तियों का उल्लेख है।17 कनिष्क के सिक्कों पर स्कन्द, महासेन आदि-आदि
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