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जिले में कपाल की माला धारण करने वालों के मुखिया को कपालेश्वर की पूजा के लिए तथा उक्त मन्दिर में निवास करने वाले महाव्रतियों के निर्वाह के लिए एक ग्राम देना लिखा है। इस लेख में ‘महाव्रत' शब्द कापालिक अथवा कालमुख का द्योतक है। इससे यह प्रमाणित होता है कि ई.सं. की सातवीं शताब्दी के मध्य में शैवों का कापालिक सम्प्रदाय प्रचलित था। कालिदास, सुबन्धु, बाण, श्रीहर्ष, भट्ट नारायण, भवभूति आदि विद्वानों ने अपने-अपने ग्रन्थों के आरम्भ में शिव की स्तुति की है। बाण और भवभूति की रचनाओं में पाशुपतों और कापालिकों का उल्लेख है। रामानुज का कथन है कि कापालिकों के सिद्धान्तानुसार जो पुरुष षण्मुद्राओं के तत्त्व तथा उनके उपयोग को भली-भाँति जानता है, वह रुद्र गति का अधिकारी है। वे छह मुद्राएँ इस प्रकार हैं-1. माला 2. आभूषण 3. वर्ण-भूषण 4. जटा-मणि 5. भस्म-धारण और 6. यज्ञोपवीत। उनके मत में जिन मनुष्यों में ये चिह्न हों, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। पुनर्जन्म से बचने के लिए कापालिक नर-खोपड़ी में खाता, देह पर चिताभस्म लपेटता, रुद्राक्ष की माला धारण करता, सिर पर बिखरे हुए केश रखता था। 'शंकरदिग्विजय' में एक कथा उल्लिखित है। एक समय माधव ने शंकर की उज्जैन में एक कापालिक से भेंट कराई। उसके शरीर पर श्मशान की भस्म और हाथों में नरकपाल तथा लौह दण्ड था। उसने शंकर से कहा-आपकी देह पर लगी भस्म तो अच्छी है परन्तु पवित्र कपाल-पात्र के स्थान पर आप मृत्पात्र क्यों रखते हैं? और कपालधारी भैरव को क्यों नहीं पूजते? यदि आप मद्य और नर-रक्त-रंजित कपाल-पात्र से उनकी पूजा नहीं करते, तो वे (भैरव) कैसे प्रसन्न होंगे? इसपर उनके साथ आए हुए राजा सुधन्वा और कापालिकों के मुखिया क्रकच में झगड़ा हो गया। शंकर ने भी क्रकच को शाप दिया। इस पर क्रकच ने अपने इष्टदेव भैरव को मदिरा आदि से प्रसन्न किया। भैरव वहाँ उपस्थित हो गया, किन्तु शंकर को अपना ही अवतार मानकर उसने क्रकच को ही मार डाला। भवभूति ने ‘मालतीमाधव' में श्रीशैल को कापालिकों का मुख्य निवास बताया है। वहाँ कपाल कुण्डला नामक दूती नर-मुण्डों की माला धारण करती थी। अघोरघण्ट द्वारा चामुण्डा को बलि देने के लिए वह मालती को आधी रात में श्मशान पर ले गई थी। वास्तव में भयोत्पादक वैदिक रुद्र का परिवर्तन भैरव और उसकी पत्नी चण्डिका, जो नर-मुण्डों की माला पहनती है, के रूप में हुआ। रामानुज ने कालमुख सम्प्रदाय का- कापालिकों से भी अधिक भयंकर रूप में चित्रण किया है। अघोरपन्थी भी इसी सम्प्रदाय के होते थे, जो गेरुए वस्त्र पहनते, मद्य-माँस खाते तथा नर-कपाल में भोजन करते थे। इनके आराध्य देव भैरव और शक्ति थे। ये सब तान्त्रिक साध ना में रहते थे, और रात में श्मशान जगाते तथा अनेक घोर कृत्य करते थे। दक्षिण में शैव धर्म कांचीपुर शैव मन्दिर के शिलालेख से छठी शताब्दी में शैव धर्म के दक्षिण में प्रचलित होने का पता लगता है। ई.स. 550 में पल्लव शासक राजसिंह ने राजसिंहेश्वर का शिव मन्दिर बनवाया था। यह राजा शैव सिद्धान्तों का विद्धान् था, इसका उल्लेख शिलालेखों में है। 10