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अघोर-वन सोमनाथ महालय के बाहर, परकोट के बाहर, खाई के उस ओर दक्षिण पश्चिम कोण में विकट श्मशान था। वह श्मशान बहुत प्राचीन और भयंकर था। परकोटे से सटे हुए दक्षिण भाग में महाकाल भैरव का मन्दिर था, जो अघोरियों के अधीन था। इस मन्दिर में तंत्रसाधक, मारण-मोहन-उच्चाटन के विविध प्रयोग करते थे। अनेक अघोरी कापालिक विविध वाम-विधियों की सिद्धि इस विकट श्मशान में एकांत रात में करते थे। यह प्रसिद्ध था कि जब ये साधक मुर्दे की छाती पर वीरासन से बैठकर पिशाच-साधन करते हैं, तब पिशाच सत्व उस मुर्दे के शरीर में प्रवेश करता है, और वह मुर्दा जीवित पुरुष की भाँति उठ खड़ा होकर साधक की असाध्य इच्छाएं पूरी करता है। इन अघोरियों, कापालिकों और सिद्धों से गृहस्थ थर-थर काँपा करते थे। बहुधा ये लोग सारे अंग में चिता-भस्म लपेटे जगह-जगह काजल और सिन्दूर से मुख और अंग को लेप किए, नंगधडंग या बाघचर्म कमर में लपेटे, कंठ और भुजाओं में मनुष्य की खोपड़ी लटकाए, हाथ में किसी पशु का बड़ा-सा हाड़ या नरखोपड़ी लिए, शराब में मत्त लाल-लाल आँखें किए नगर में आते और जिसका जो कुछ चाहते उठा ले जाते थे। किसी का साहस न था कि उनकी मनमानी पर तनिक भी विरोध करे। इनके तनिक रुष्ट होने पर ही जीवन की खैर न थी, यह साधारणतया सभी का विश्वास था। किसी भी कापालिक और अघोरी को आते देख स्त्रियाँ अपने बच्चों को घर में भीतर बन्द कर देती थीं। अकस्मात् किसी का मर जाना या किसी बालक का रोगी हो जाना निश्चय ही किसी तांत्रिक अघोरी के कोप का कारण ही समझा जाता था और उन्हें संतुष्ट करने के लिए सब करने न करने के काम किए जाते थे। श्मशान को छूती हुई हिरण्या नदी निकट ही समुद्र में गिरती थी। प्रभास के निकट उसका मुख खूब विस्तार पा गया था। हिरण्या नदी के उस ओर अघोर वन था, जिसकी दो काली-काली नंगी पर्वत चोटियाँ दूर ही से दिखाई देती थीं। कोई भी पुरुष अघोर वन में नहीं जा सकता था। जाकर जीता नहीं लौटता था। हाथ में पशुओं के आंत की बनी यम- फाँस लिए, एक करोड़ पिशाच उस वन की रक्षा करते हैं ऐसा सबका विश्वास था। प्रत्येक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को पिशाचों का अधिपति, अघोर वन से हिरण्या नदी पार करके उस श्मशान में आकर अघोर चक्र रच महाकाल भैरव को बलि देता है, ऐसा सभी का विश्वास प्रत्येक अमावस्या को बहुत-से नगर निवासी श्मशान में जाते। वे कुत्तों और गीदड़ों से घिरे हुए बैठे अघोरियों और कापालिकों को नानाविध भेंट-बलि अर्पण करते तथा अपने- अपने रोग, शोक एवं आवश्यकताओं को उन्हें सुनाते थे। ये सब पाखण्डी, व्यभिचारी और कुमार्गी थे, वे भोले-भाले लोगों को किस प्रकार ठगते, लूटते और डराते थे, उसकी उन दिनों किसी ने कल्पना भी न की थी। सब लोग समझते थे कि वे लोग देव सत्व-जुष्ट शक्तिमान् सिद्ध पुरुष हैं। उनके उचित-अनुचित किसी भी काम का विरोध करना देश पर विपत्ति बुलाना समझा जाता था। था।