'भाव' और 'शर्व' दो देवता हैं। 'शतपथ' ब्राह्मण में तथा ‘कौशीतकी' उपनिषद् में रुद्र उशस् के पुत्र हैं। इनके चार नाम हानिकर और चार नाम लाभदायक हैं। ये आठों नाम इन्हें प्रजापति ने प्रदान किए हैं। 'श्वेताश्वतरोपनिषद्' में शिव पूर्ण परमेश्वर हैं। इस प्रकार यजुर्वेद के बाद से उपनिषद्-काल तक इनका पूरा महत्त्व रहा है। गीता में, जिसे पाँचवीं शताब्दी बी. सी. की कहा जाता है, वे पहले-पहल विष्णु के पीछे रह जाते हैं। दूसरी शताब्दी बी. सी. में 'लकुलिन' अथवा 'लकुलीश' नामक महात्मा ने पाशुपत मत चलाया,ऐसा भांडारकर का कथन है। इसकी पूजन-विधि में नृत्य, गान और हुँकार आदि सम्मिलित हैं। देवी के सम्बन्ध में कुछ शृंगारपूर्ण अनुचित भाव भी हैं। ‘पंतजलि', जो दूसरी शताब्दी बी. सी. के पुरुष हैं, उनके काल में 'शिव', 'स्कन्ध' और 'विशाख’ की मूर्तियाँ पूजी जाती थीं। कनिष्क के पिता 'वेमकडफइजेज़' के सिक्कों पर शिव की मानुषी मूर्ति है, लिंग की नहीं। ये सिक्के लखनऊ-म्युज़ियम में रखे हुए हैं। पहली शताब्दी ईस्वी में शैव मत की वृद्धि और महायान बौद्ध सम्प्रदाय की वृद्धि साथ ही साथ हुई। शिवलिंग की सब पुरानी मूर्तियाँ इसी समय की मिलती हैं। वराहमिहिर, जो छठी शताब्दी के पुरुष हैं, लिखते हैं कि शैव मूर्ति की स्थापना ब्राह्मण से कराए। कालिदास (पाँचवीं शताब्दी), भवभूति (छठी शताब्दी), श्रीहर्ष (बारहवीं शताब्दी) के कवि ग्रंथारम्भ में शिव की उपासना करते हैं। 'मालतीमाधव' में भवभूति ने शिव-मन्दिर का वर्णन किया है। सातवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में कापालिकों का होना पाया जाना प्रमाणित है। आठवीं शताब्दी के शंकराचार्य ने पाशुपत धर्म के आचार्य नीलकण्ठ को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। महाभारत में भी उपमन्यु द्वारा लिंग-पूजन का कथन है। अनुशासन पर्व में शिव को ब्रात्यों का देवता कहा है। कश्मीर में कल्लट(ईस्वी सन 854),सोमानन्द (दसवीं शताब्दी) ने परमोच्चभावपूर्ण शैव पूजन चलाया। 1160 में दाक्षिणात्य वासव ने लिंगायत सम्प्रदाय को स्थापित किया। एलौरा के गुफा मन्दिर, जिनका निर्माण तीसरी से नवीं शताब्दी के बीच हुआ, उनमें शिव की महत्ता के अनेक मन्दिर हैं। यही हाल खजुराहो, मदुरा और कांची आदि के शैव मन्दिरों का है, जिनका समय आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक है। बारहवीं शताब्दी के चौल राजा बड़े भारी शैव थे। ठेठ दक्षिण में 63 शैव भक्तों के मठ हैं। वहाँ की शैव महिमा बहुत प्राचीन है। चौदहवीं शताब्दी का गोरखनाथ का सम्प्रदाय भी शैवमत-गर्भित है। सारे भारत में फैले हुए द्वादश ज्योतिर्लिंग शैव धर्म की व्यापकता के ज्वलन्त प्रमाण हैं। शैव मत का बौद्ध महायान से बहुत आदान-प्रदान हुआ। भारत से बौद्ध विचारों को हटाने में शैव मत का भारी हाथ था। यद्यपि शैव मत भय के आधार पर उठा, इसलिए बहुत काल तक उसका शाक्त रूप रहा, परन्तु धीरे-धीरे वह प्रेम का प्रतीक बनता गया। अठारह पुराणों में छह वैष्णव हैं, और छह शैव। कुल मिलाकर पौराणिक साहित्य में शिव दैत्यों, दानवों, निशाचरों आदि के भी कृपालु, हितैषी, आशुतोष और संहारक देवता हैं। द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग शिवपुराण में द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग वर्णित हैं। सौराष्ट्र में ‘सोमनाथ', श्री शैल पर 'मल्लिकार्जुन', उज्जयिनी में 'श्री महाकाल', 'ओंकारेश्वर', केदार खण्ड में 'केदारनाथ',
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