तत्त्व के ही प्रतिनिधि एक रमणीरत्न के आँचल की छाँह में उसे उसके घर गज़नी रवाना कर दिया। गंग सर्वज्ञ के रूप में मैंने उसे आशीर्वाद दिया। और आशीर्वाद का तत्त्व भी मैंने भीमदेव को बता दिया। फिर दामो महता से पराजित करा, उसे उसका दोस्त बना, उसके सम्पूर्ण पौरुष को सत्कृत किया। परन्तु शायद यह काफी न था। मैंने शोभना का रूप धारण किया, और उस रूप में मैंने उस दुर्दान्त लुटेरे को कितना धोया-माँजा, कितना मानवता के तत्त्वों से उसे ओत-प्रोत किया इसका फैसला तो मैं आप ही पर छोड़ देता हूँ। अब यहाँ कहीं मैंने चूक ही की है तो आप मेरे कान पकड़ सकते हैं। परन्तु आपकी बात मैं मानूँगा थोड़े ही। मैं तो यही कहे जाऊँगा, कि मैंने जो कुछ किया ठीक किया। ठीक किया। ठीक किया। विश्व का विद्रोह करने पर भी यहीं कहूँगा। तिल-तिल काट डालने पर भी यही कहूँगा। चौलादेवी और भीमदेव चौलादेवी निस्सन्देह मेरे उपन्यास की नायिका है। उसकी मूर्ति को जितना अमल- धवल, कोमल, भावुक बनाना शक्य था, बनाकर मैंने सारे संघर्षों के इस पार से उस पार तक पहुँचाकर, फिर अपने प्रियतम के वक्ष से लगाकर इसे विदा कर दिया है। इस ‘विदा' की वेदना आँसू नहीं बहाने देती, मूर्छित कर देती है। भीमदेव निस्सन्देह शौर्य का मूर्त अवतार है। वह इस उपन्यास का नायक भी है, परन्तु उसके शौर्य का ही उत्कर्ष दिखाकर मैं सन्तुष्ट हो गया। इससे बड़ा पुरुष तो मैं उसे मान ही न सका। राजपूतों की राजनैतिक परिस्थिति पर भी मैं थोड़ा प्रकाश डालना ठीक समयूँगा। उस काल में, जिसकी यह घटना है, गुजरात के सोलंकी भारत के सर्वश्रेष्ठ राजा थे। चामुण्डराय के अच्छे-बुरे चरित्रों पर मैंने आगे ऐतिहासिक प्रकाश डाला है। यहाँ तो मैं उस बात का स्पष्टीकरण कर रहा हूँ कि मैंने क्यों चामुण्डराय को एक सनकी और निस्तेज राजा अंकित किया। निस्सन्देह अपनी वृद्धावस्था में चामुण्डराय ऐसा हो गया था। परन्तु मैं तो उसके काल से हिन्दू राजाओं के उस असावधान जीवन की ओर संकेत कर रहा हूँ, कि जिसके कारण हिन्दू राजा हारते ही चले गए। हाँ, उनमें मुलतान के अजयपाल, घोघागढ़ के घोघाबापा, सपादलक्ष के धर्मगजदेव, अजमेर के दुर्लभराज और सोमतीर्थ में शौर्य प्रकट करने वाले छोटे-बड़े नरपति भी थे। एक महत्त्वपूर्ण बात का संकेत तो मैं कर ही चुका हूँ, कि गुजरात के राजा शैव और मन्त्री जैन थे। प्रजाजन में जनसाधारण शैव और साहकार जैन थे। इनमें उन दिनों साम्प्रदायिक झगड़े होते रहते थे। इससे राजसत्ता राजा और मन्त्री में विभाजित रहती थी। हिन्दू राज्यों के पतन का यह भी एक कारण है। पर सबसे बड़ी और मुख्य बात उनमें संगठन और एकता का अभाव ही था। यदि ये राजपूत एक बार आपस में संगठित हो गए होते, तो भारत को कभी भी ऐसे भयानक रक्तपात और पराजय के दृश्य न देखने पड़ते। राजपूतों के साम्राज्य स्थापन के जो अनेक सुअवसर आए, वे यों ही न चले जाते। शिव 'ऋग्वेद' में रुद्र तैंतीस देवताओं में से एक हैं। वे ‘पशुपति' भी कहे गए हैं। ‘यजुर्वेद' की शताब्दी में वे शिव के रूप में ईश्वर हैं। 'अथर्व' में उन्हें ईश्वर ही माना गया है। जहाँ
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