अतिभीषण तीव्र गति धारण कर लेती है। उसी के प्रभाव से व्यक्ति की भाँति राष्ट्रों के जीवन का एक-एक वर्ष कभी-कभी सौ वर्षों के समान भारी हो जाता है। और कभी हँसते- खेलते ही बात-की-बात में शताब्दियाँ बीत जाती हैं। भारत के गत छब्बीस वर्ष बड़े ही तेज़ी से बीते हैं, सहस्राब्दियों से सुप्त और आत्म-विस्मृत भारतीय राष्ट्र एक अद्भुत उमंग और तेज के साथ जाग उठा है। ये छब्बीस वर्ष बड़ी ही तेज़ी में बीते हैं, सहस्राब्दियों से सुप्त और आत्म-विस्मृत भारतीय राष्ट्र एक अद्भुत उमंग और तेज के साथ जाग उठा है। इन छब्बीस वर्षों में जो कुछ हुआ है, उसका भारत के राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। परन्तु यह दीख पड़ता है कि आगामी पाद शताब्दी और भी दुत-गति से आगे बढ़ेगी,और बड़ी-बड़ी घटनाएँ और बड़े-बड़े परिवर्तन अकल्पित तेज़ी से भारत में होंगे, जिनका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर पड़ेगा। अब ये मेरे ही वाक्य बारम्बार शत-सहस्र रूप धारण करके मेरे मस्तिष्क में चक्कर खा रहे थे, कि मानव-रक्त बहकर मेरे चरण-तल तक ही आ पहुँचा। और अब एक हिंस्र, असह्य और दुर्धर्ष वैकल्य तथा खीझ से मेरा तन-मन भर उठा। और किसी अचिन्त्य शक्ति से ओत-प्रोत हो मेरी कलम अपना काम करने लगी। लीजिए साहेब, रात-दिन में अनवरत गति से एक के बाद दूसरे परिच्छेद आप-ही-आप सम्पूर्ण होने लगे। खून-खराबी, लूटपाट, अत्याचार और बलात्कार के जो दृश्य, घटनाएं मेरे कानों और आँखों को आक्रान्त करने लगीं, उन सबको मैं अपने इस उपन्यास में, ग्यारहवीं शताब्दी के उस बर्बर आक्रान्ता के उत्पातों में आरोपित करता चला गया। मैं नहीं जानता कि मेरा यह काम कहाँ तक साहित्यिक अपराध हो सकता है। परन्तु यदि यह अपराध ही है, तो मैं इसे आपसे छिपाना पसन्द नहीं करूँगा। तीन बात किन्तु तीन बातों का मैंने अपने इस उपन्यास की रचना में आश्रय लिया। श्री मुंशी, चूंकि मुझसे प्रथम ‘जय सोमनाथ' लिख चुके थे इसलिए इस कथा में मैंने श्री मुंशी को आप्त पुरुष मान्य किया। उनकी अनेक काल्पनिक स्थापनाओं को मैंने सत्य की भाँति ग्रहण कर लिया। इससे एक तो मेरे उपन्यास में परम्परामूलक रसोद्रेक हुआ। दोनों उपन्यास पढ़ने पर पाठक के मन पर उस घटना का द्विगुण प्रभाव होगा, विरोधी भावना नहीं पैदा होगी। इससे रस- भंग का दोष नहीं आएगा, यही मैंने सोचा। ऐतिहासिक सत्यों की मैंने परवा नहीं की। इतना ही काफी समझा कि महमूद ने सोमनाथ को आक्रान्त किया था। उसने गुजरात की लाज लूटी थी। फिर भी मुझे तत्कालीन वातावरण तथा घटनाओं की रूपरेखा बनाने में गुजराती- साहित्य और गुर्जर विद्वानों के लिखे संस्कृत-प्राकृत अनेक ग्रंथों का मनन करना पड़ा। सोलंकी वंश, तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति, अर्थ-व्यवस्था, राजतंत्र, कूटनीति चक्र, साम्प्रदायिक भावना-सभी पर मैंने विचार किया। इस काल के वातावरण का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश, जिसने गुजरात की राज सत्ता को बहुत हानि पहुँचाई, यह था कि राजा शैव हिन्दू और मन्त्री जैन होते थे। इससे राज्य की अर्थ-व्यवस्था जैनों के हाथ में होती थी। नागरिक, सेठ-साहूकार भी जैन होने से राज्य में शैव राजा की अपेक्षा जैन मंत्री का
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