उनसे मुझे कुछ भी न मिली। बहुत निराशा हुई। इसी समय मेरे मित्र और शिष्य श्री महावीर प्रसाद दाधीच ने, जो आज बम्बई के नामांकित सालीसिटर हैं, मुझे श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी से मिलने की सलाह दी। उन्होंने कहा, वे गुजराती के अच्छे साहित्यकार हैं, उनसे आपको अवश्य ही कुछ काम की बातें मालूम हो जाएँगी। दाधीच ही को लेकर मैंने श्री मुंशी से उनके आफिस में जाकर मुलाकात की। पर मुलाकात करके खुश नहीं हुआ। खीझ ही गया। उन दिनों वे बम्बई में प्रैक्टिस करते थे और फोर्ट में उनका आफिस था। उनकी न दृष्टि ही में, न बातचीत में, मुझे कुछ रस मिला। मैंने यह तनिक भी अनुभव नहीं किया कि मैं एक साहित्यिक बन्धु के पास मिलने आया हूँ। सोमनाथ के सम्बन्ध में मैंने कुछ प्रश्न किए, पर जवाब ऐसे ही मिले, जैसे वकील अपने मुवक्किल से किसी मुकदमे की बाबत कर रहा हो। जहाँ तक मुझे स्मरण है, मुलाकात खड़े ही खड़े खत्म हो गई। काफी देर बाद जब उन्होंने मुझसे बैठने को कहा, तब उनके उस ठण्डे लहजे से मैं इतना कुढ़ गया कि तुरन्त ही उनका इतना समय नष्ट करने के लिए क्षमा माँग भाग खड़ा हुआ। फिर मुझे किसी गुजराती साहित्यकार से मिलने का साहस नहीं हुआ। हालांकि मुझे हाजी मुहम्मद अल्लारखिया की आठ-आठ घण्टों की मुलाकातें नहीं भूली थीं। इसके बाद जब मैं अहमदाबाद आकर गुर्जर शब्द-शिल्पी श्री धूमकेतु से मिला, तो एक बार फिर मेरे मन की खिन्नता मिटी। श्री धूमकेतु ने मुझे एक-दो पुस्तकों के संकेत दिए। कुछ बातें भी बताईं। फिर भी मेरे पास ऐसी सामग्री न जुट पाई कि मैं सोमनाथ पर उपन्यास लिख सकता। फलतः यह उपन्यास लिखने का विचार मैंने दिमाग से ही निकाल दिया। दिन-पर- दिन और वर्ष-पर-वर्ष बीतते चले गए। एक-दो लहरें आईं और शुरू के तीन-चार परिच्छेद मैंने लिखे पर गाड़ी फिर वहीं रुक गई। सन् 45 आ गया, और मैंने हिन्दी-साहित्य का इतिहास लिखा। उसमें मैंने महमूद के आक्रमण के सांस्कृतिक प्रभाव पर प्रकाश डाला। और एक बार फिर 'भारतीय संस्कृति पर मुस्लिम प्रभाव’ पर जाकर मेरी विचारधारा केन्द्रित हुई। अब मैं कभी-कभी सोमनाथ पर एक उपन्यास लिखने को मन-ही-मन अधीर होने लगा। इसी समय श्री मुंशी का 'जय सोमनाथ' मेरे सामने आया। पहले मैंने उसे मूल गुजराती में पढ़ा, पीछे हिन्दी-अनुवाद पढ़ा। मुझे इस बात का ख्याल ही न रहा कि यह उपन्यास श्री मुंशी ने लिखा है या मैंने। मैं यही सोचने लगा, कि क्या वास्तव में सोमनाथ लिख दिया गया है। परन्तु मेरा मन भरा नहीं। और किसी एक अतर्कित भावना ने मेरे हृदय में एक ऐसी ऐसी तीव्र आकांक्षा उत्पन्न कर दी, कि अब मैं सोमनाथ पर कलम उठाए बिना रह ही न सकता था। अब मैंने यह विचार किया कि मैं श्री मुंशी के इस उपन्यास से कुछ प्राप्त कर सकता हूँ या नहीं। मैंने दो- तीन बार उसे बारीकी से पढ़ा। इस समय तक मेरा ‘वैशाली की नगरवधू' उपन्यास प्रकाशित हो चुका था और मैं ‘इतिहास रस' की स्थापना मन में दृढ़बद्ध कर चुका था। अब मुझे इस बात की परवाह नहीं थी कि मैं इतिहास से इधर-उधर हो जाऊँगा तो क्या होगा? मनमानी कुलांचें भरने के लिए मैं तैयार बैठा था। श्री मुंशी के 'जय सोमनाथ' के प्रति मैंने एक प्रतिस्पर्धा की दृष्टि डाली। मन में कहा, यदि मेरा उपन्यास इससे निकृष्ट बना, लोगों ने उसे न पढ़ा, तो क्या होगा? मैंने यद्यपि श्री मुंशी के इस उपन्यास में कुछ भी प्राप्तव्य नहीं पाया था। परन्तु श्री मुंशी का रुआब तो मुझ पर था ही। साहित्यिक न सही, ठाट-बाट का
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