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और, वह दिग्विजयी महमूद, उस गुणगरिमामयी ब्राह्मण कुमारी के आँचल की छांह में काबुल की दुर्गम राह पर, दुरूह खैबर के दर्रे में खो गया। भारत में रह गए, उसकी सत्रह विजय-यात्राओं के अमर चरण-चिह्न!!! चौलादेवी के आकुल-व्याकुल प्राण प्रिय-मिलन के लिए छटपटा रहे थे। आज के इस क्षण के लिए उसने न जाने कितनी साधना की थी। कब प्रियतम का सन्देश आता है, उसका हृदय भय, आशंका और आनन्द के झूले में झूल रहा था। वह गुर्जरेश्वर की प्रिय अर्धांगिनी और गुजरात की महारानी है। एक दिन मुहूर्त में जिसने अपना तन, मन जिस देवता को विसर्जित किया था, आज वह उसका मूल-ब्याज सभी पा रही है। महाराज भीमदेव का सुन्दर श्याम स्वरूप, वज्रगात, नासिका का उठाव, विशाल नेत्र, सौम्य मुखमुद्रा, मधुर मुस्कान, उसके मानस नेत्रों में शत-सहस्र रूप धारण कर उसके रक्त की प्रत्येक बूंद में नृत्य की वासना उत्पन्न कर रहा था। उधर महाराज भीमदेव के रोम-रोम में चौला का नव किसलय कुसुम कोमल गात रम रहा था। इस प्राण सखी से मिलने को उनके प्राण छटपटा रहे थे। उन्हें ज्ञात न था कि यह कहाँ है। युद्ध-विग्रह और राजकीय खटपट में पड़े रहकर वह इस सम्बन्ध में कुछ अधिक जान ही न सके थे। वे केवल दामोदर के उसी एक वाक्य से आश्वस्त थे, जो उन्होंने कहला भेजा था। अब दरबार से निवृत्त हो राजा ने दामोदर को एकान्त कक्ष में बुलाया और चौला की बात पूछी। दामोदर ने सारा भेद प्रकट करके कहा, चौलारानी महाराज के आह्वान की प्रतीक्षा में हैं। सुनकर महाराज भीमदेव प्रेम-दीवाने हो गए। और उसी क्षण उन्होंने आज्ञा दी कि चौला रानी के राजमंदिर में आने के उपलक्ष्य में महोत्सव हो। विवाह की जो रस्म देव-सान्निध्य में हुई है, वह अब राजसी ठाठ-बाट से सब नगर पौर जनो और नरपतियों के समक्ष हो, जिससे उसकी मर्यादा महारानी के समान स्थिर हो तथा उसे राजगढ़ में धूमधाम से लाया जाए। महाराज ने मन्त्रीश्वर विमलेव शाह को बुलाकर राजसी ठाठ से महारानी चौलादेवी को राजगढ़ में धूमधाम से ले आने की आज्ञा दी। परन्तु मन्त्रीश्वर ने गुर्जरेश्वर की यह प्रथम आज्ञा अमान्य कर दी। उन्होंने कहा, "महाराज, गुजरात की महारानी उदयमती हैं। मन्दिर की नर्तकी— देवार्पित देवदासी पाटन के राजगढ़ में नहीं प्रविष्ट हो सकती। फिर सोलंकियों की गद्दी का उत्तराधिकारी, तो महारानी उदयमती का पुत्र ही हो सकता है।" बात का बतंगड़ बन गया। महारानी उदयमती तीखे स्वभाव की राजगर्विता स्त्री थी। उसने भी चौलारानी का वैध अधिकार स्वीकार नहीं किया । मन्त्रीश्वर गुर्जरेश्वर के समक्ष अड़ गए। चौलादेवी का राजगढ़ में प्रवेश एक महत्त्व का प्रश्न हो गया। जिस मन्त्री विमलदेव शाह ने गुर्जरेश्वर चामुण्डराय के सम्मुख नंगी तलवार चमकाकर भीमदेव का पक्ष पुष्ट किया था, वही अब चौलादेवी के विरोध में गुजरात के इस तेजस्वी तरुण अधिपति के सम्मुख तन गए। सारे पाटन में इस राज-कलह की चर्चा फैल गई। मन्दिर की नर्तकी देवदासी को महारानी स्वीकार करने से पाटन के सेठ-साहूकारों और नगरजनों ने भी इन्कार कर दिया। वास्तव में वे सब साहूकार जैनधर्मी थे। और विमलदेव शाह भी जैनधर्मी -