कच्छ का महारन इस रन में रेत-ही-रेत है। तीन सौ मील के विस्तृत मैदान में न एक झाड़, न पानी का ठिकाना। लाल-लाल रेत के पर्वत, जो आँधी के थपेड़ों के साथ कभी इधर और कभी उधर अद्भुत और नये-नये दृश्य उपस्थित करते हैं। रह-रहकर रेत के भयानक तूफान आते हैं, और आग की भाँति जलती हुई रेती की चट्टान, इधर-उधर घूमती प्रलय का दृश्य उपस्थित करती है। उनके बीच मनुष्य, हाथी, घोड़ा, पशु-पक्षी जो आता है, उसी की समाधि लग जाती है। जो कोई जीवित मनुष्य इन रेतीले तूफानों के थपेड़ों में घिरता है, उसे इस रेत में जीवित समाधि ही लेनी पड़ती है। दिन में सघन अन्धकार छा जाता है। रन के मध्य स्थल में रणथम्भी माता का मन्दिर था। यह मन्दिर एक टेकड़ी पर था। कच्छ-काठियावाड़ के बहुत श्रद्धालु जन रणथम्भी माता की आन मानते और यहाँ आते थे। यह स्थान रन में एकमात्र हरा-भरा स्थान था। कच्छ के किनारे से यह तीसरे पड़ाव पर था। यहाँ तक का मार्ग उतना विकट नहीं था। राह में एकाध झाड़ दीख जाता था, कहीं पानी भी मिलता था। इस टेकड़ी पर एक पुराना मन्दिर, दो-तीन टूटी-फूटी झोंपड़ियाँ और पाँच-सात जंगली वृक्ष थे। एक तालाब था जिसमें वर्षा ऋतु का जल एकत्र होता था। जल दूषित था, पर इसी को लोग पीते थे। इसके बाद आगे तीन सौ योजन तक न झाड़, न पानी। रणथम्भी माता को लाँघ कर आगे रन में घुसना साक्षात् मृत्यु के मुँह में घुसने के समान था। रणथम्भी माता को लाँघने की बात सुनते ही लोग सहम जाते थे। गज़नी के इस दैत्य को रोकने जहाँ दूसरी ओर एक लाख साठ हज़ार तलवारें सन्नद्ध थीं, वहाँ इस नाके पर मरुस्थली के स्वामी घोघाबापा का वीर पुत्र सज्जन अकेला ही रणथम्भी के रन पर अपनी चौकी लिए बैठा था। वह सोच रहा था, यदि दुर्भाग्य उस डाकू को यहाँ ले आया तो फिर यहाँ से उसका निस्तार नहीं है। महीनों से वह इस कठिन साधना में तप कर रहा था। वह और उसकी ऊँटनी, जिसे वह अपनी सन्तान की भाँति प्यार करता था और जिसके जोड़ की सांड़नी काठियावाड़ भर में न थी। इस पर उसे भरोसा था। वह उसे नित्य अपने साथ स्नान कराता। अपने हाथ से वृक्षों के कोमल पत्ते तोड़कर खिलाता। उसकी गर्दन सहलाता, उससे बातें करता, उसे प्यार करता। कितनी सूनी रातें उसने इस मरुस्थली के सूने वक्ष पर व्यतीत की। कितनी आँधियाँ, कितने तूफान देखे। कितनी बार वह प्रलय के तूफानी अंधड़ों को निमन्त्रित कर चुका था। भुमिया लोग और श्रद्धालु यात्री, जो रणथम्भी माता की आन-मानता मान यहाँ आते, वह संसार में कहाँ प्रलय हो रहा है इसका उड़ता-गिरता वर्णन करते। सोमनाथ का पतन हो गया। देवता की प्रतिष्ठा भंग हो गई। और गुजरात का राजा न जाने कहाँ चला गया। सारे गुजरात पर अमीर की दुहाई फिर गई है। और सब जगह आग और तलवार का राज्य है। यही सूचनाएँ उसे मिलती रहती थीं। भुमिया लोग कभी-कभी उसे रोटियाँ ला देते, कभी वह सत्तू-चना खाकर पड़ रहता, वह घण्टों तक आँखों पर हाथ रखकर अपने शत्रु को रणथम्भी के कराल गाल में प्रविष्ट होते देखता रहता।
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