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मुन्द्रा में अभी अच्छी तरह सूर्योदय नहीं हुआ था। रात-भर पहरे-चौकी पर सजग पहरेदार ऊँघ रहे थे। इसी समय एक तरुण धूल-भरे वस्त्रों और बदहवास चेहरे से पाँव-पैदल मुन्द्रा के राजमार्ग पर दौड़ा आ रहा था। द्वार पर आकर उसने उद्वेग-भरे स्वर में पहरेदार से कहा, "भाई, थानेदार की देहरी किधर है?" पहरेदार ने ध्यान से आगन्तुक की ओर देखा। आगन्तुक के पास घोड़ा-ऊँट या कोई हथियार भी न था। उसने अधिक प्रश्न नहीं किया। सामने एक ऊँची अट्टालिका की ओर उँगली उठा दी। आगन्तुक बिना एक क्षण रुके उसी ओर को चल पड़ा मुन्द्रा का थानेदार अपनी देहरी के आगे एक पाटे पर बैठा दातून कर रहा था, आगन्तुक ने उसके आगे पहुँचकर कहा- “मुन्द्रा के थानेदार से मुझे काम है।" "कह, भाया, मैं ही थानेदार हूँ। क्या काम है?" “गज़नी का अमीर मुन्द्रा की ओर दबादब आ रहा है?" थानेदार चौंका, उसने कहा, “भ्रम तो नहीं हुआ?" “कैसा भ्रम, अपनी आँखों से देखकर आ रहा हूँ। भायातों की सेना से उलझ रहा है। उन्होंने उसे उसकी प्रधान सेना से पृथक् कर दिया है, वह हज़ार-एक सवारों के साथ इधर ही भागा आ रहा है।" "केवल एक हज़ार?" "बस इतने ही। उसकी सारी फौज भायातों ने घेर ली है।" “ठीक है, तुम ठहरो, खा-पीकर जाना, कहाँ के निवासी हो?" “मांडवी का हूँ, भायात उसे अंजौर तक धकेल लाए। उसी में उसका मुख्य सेना से सम्बन्ध छूट गया, अब वह आत्मरक्षा के लिए इधर आ रहा है!" समुद्र के तट पर मुन्द्रा नगर एक अच्छा बन्दरगाह था। उसका किला दूर से काले दैत्य के समान जल-थल के यात्रियों को दिखाई देता था। थानेदार की दातून अधूरी रह गई। उसने अपनी सिरबन्दी के जमादार को बुलाकर कहा, “शहर के सब दरवाजे बंद कर दो। और उनकी रक्षा का पूरा इन्तज़ाम ठीक कर दो।" इसके बाद उसने वस्त्र पहने। हथियारों से सज्जित हुआ और टेढ़े-तिरछे गली-कूचों को लांघता हुआ एक बड़ी अट्टालिका में घुस गया। अट्टालिका नगर के प्रमुख सेठ मेघजी की थी। सेठ भी अभी नित्यकर्म से निपट रहा था। उसने कहा, “सेठ, गज़नी का सुलतान आ रहा है।" "क्या मुन्द्रा में?" सेठ ने आश्चर्य और आतंक से कहा। हाँ,परन्तु घबराने से काम नहीं चलेगा । जाओ तुम,महाजनो और नगरनिवासियों को कह दो, स्त्री-बच्चों को किले में पहुँचा दें। और सब मर्द, अपने-अपने CC