“खम्भात से पिताजी।" “वहाँ भी क्या म्लेच्छ पहुँच गया?" "वहाँ सब कुछ हो चुका है पिताजी।" "तुम्हारे घर क्या कोई है?" "कह नहीं सकती। अभी तो आपकी ही शरण हूँ।" "तो बेटी, ब्राह्मण के घर जो कुछ रूखा-सूखा देवान्न है, खाकर रहो।" “किन्तु माता को नहीं देख रही हूँ।" "बाहर गई है, आती होगी। तेरा मुँह सूख रहा है। तू भूखी है। थोड़ा दूध घर में है, देता हूँ, पी।" इतना कहकर वृद्ध ब्राह्मण व्यस्त भाव से घर में घुस गए। चौला का निषेध उन्होंने नहीं माना, थोड़ा दूध लाकर पिला दिया। इसी समय गर्जन-तर्जन करती ब्राह्मणी आ गई। यजमानों के घर से वह थोड़ा चावल माँग लाई थी। चौला को आँगन में बैठी देख ब्राह्मण से उसने तीखी होकर कहा, "यह मेरी सौत कौन आ गई?" चौला ने उठकर आँचल गले में डालकर ब्राह्मणी के चरण छूकर कहा- "आपकी पुत्री हूँ-दुखिया स्त्री। आपकी शरण आई हूँ माताजी।" “सो दूर रह, छू मत। कुवेला नहाना पड़ेगा। निपूता न जाने कहाँ से किस जात- कुजात को बटोर लाता है।" उसने घूरकर ब्राह्मण को देखा। ब्राह्मण उत्तर न देकर खड़ाऊँ खड़खड़ाते बाहर चले गए। उन्होंने सोचा, दोनों स्त्रियाँ स्वयं ही अपना सन्तुलन ठीक कर लेंगी। कुछ देर बाद ब्राह्मणी ने कहा, “कौन जात हो?" "क्षत्रिय।" “कहाँ से आई हो?" “खम्भात से।" 'अकेली?" “म्लेच्छ ने खम्भात में कहर मचाया है माताजी, प्राण लेकर आपकी शरण में आई ब्राह्मणी कुछ नरम हुई। वह बड़बड़ाती हुई चावल बीनने लगी। चौला ने कहा- "चावल मैं बीनती हूँ, आप चूल्हा सुलगाइए।" “पानी भी तो नहीं है। मैं ही भर कर लाऊँगी। बूढ़ा तो कुछ करेगा नहीं।" “पानी मैं लाती हूँ माँजी, कुआँ कहाँ है?" “वहाँ अमराई में है। वह घड़ा है।" चौला घड़ा बगल में दबाकर जल भरने चली। ऐसे काम की वह अनभ्यस्त थी। परन्तु चातुर्य और परिश्रम, तथा शील एवं मृदु वचनों से उसने वृद्धा पर मोहिनी डाल दी। भात तैयार होने पर ब्राह्मणी ने कहा, “तू खा, भूखी होगी!" “पहले देवता को भोग लगेगा, पीछे पिताजी और आप भोजन करेंगे, फिर आपका प्रसाद मैं लूंगी।" ब्राह्मणी सन्तुष्ट हो गई। चौला ने घर की झाड़-बुहार से लेकर देव-सेवा तक सब
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