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मौनी बाबा

 

सरस्वती के उत्तर तट पर दधिस्थली ग्राम था। उस ग्राम से कोई डेढ़ कोस के अन्तर पर बटेश्वर नाम का एक प्राचीन शिवालय था। शिवालय जीर्णावस्था में होने पर भी अति भव्य था, उसके आसपास चारों ओर अनेक छोटे-बड़े मन्दिर और थे। इनमें भी शिवलिंग की स्थापना थी। स्थान अति रमणीक था। उसकी तीन दिशाओं में बहुत-से बड़े-बड़े छायादार वृक्ष थे। चौथी दिशा में महानदी सरस्वती शिवालय के चरण पखारती कलकल निनाद करती बह रही थी। शिवालय से कोई तीन कोस के अन्तर पर श्रीस्थल तथा आठ-नौ कोस के अन्तर पर अनहल पट्टन था। बीच के मैदान में मनुष्यों की बस्ती न थी। शिवालय एकान्त, निर्जन था। शिवालय का शिखर बहुत ऊँचा था। वहाँ से चारों ओर का दृश्य अति भव्य दीखता था।

कुछ दिन से इस शिवालय में एक संन्यासी आकर टिके थे। संन्यासी परदेशी थे और बहुत वृद्ध थे। उनका शरीर अत्यन्त कृश और लम्बा था। उसपर श्वेत लम्बी दाढ़ी अतिभव्य दीख पड़ती थी। संन्यासी मौनी थे, मुँह से बोलते नहीं थे, न आसपास के ग्रामों में भिक्षा करने जाते थे। ग्रामीण भक्तजन और जंगल के चरवाहे जो आकर भक्ति-भाव से कुछ खाने-पीने की वस्तु रख जाते थे, उनसे वे केवल संकेत से बहुत कम बातें करते थे। आसपास के ग्रामों में वे मौनी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे। दिन में एक-दो ग्रामीण उनके पास बने रहते थे, परन्तु रात्रि को बाबा अकेले ही उस निर्जन में रहते थे। उनकी निस्पृह वृत्ति और गम्भीर आकृति से प्लावित हो ग्रामीण उनपर श्रद्धा करते थे।

अर्द्धरात्रि व्यतीत हो गई थी। रात अंधेरी थी और जंगल सुनसान था। ऐसे समय में दो अश्वारोहियों ने शिवालय के प्रांगण में प्रवेश किया। दोनों अश्वारोहियों में एक छद्मवेशी सुलतान महमूद और दूसरा उनका साथी था। दोनों साधु-वेष में ही थे। घोड़ों का पदचाप सुनते ही मौनी बाबा बाहर निकल आए और अश्वों की व्यवस्था कर तीनों शिवालय के अलिन्द में जा बैठे। बैठते ही तीनों ने वार्तालाप प्रारम्भ कर दिया। वार्ता शुद्ध अरबी भाषा में हुई, उसका अभिप्राय इस प्रकार था—

"हज़रत! अब्बास ज़ख्मी हो गया।"

"यहाँ तक नौबत क्यों आने दी, सुलतान?"

"नौबत आगे तक आती, परन्तु गुसाई बीच में आ गया।"

"गंग को आपने देखा?"

"देखा।"

"और कुछ"

"दो चीजें और देखीं।"

"वह क्या?"

"गुजरात का राजा।"

"चामुण्डराय?"