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जवाब है।" देवचन्द्र खिलखिलाकर हँस पड़ा। और कैदी भी हँसने लगे। स्त्रियों ने जोश में आकर मसऊद को घेर लिया। क्रोध और अपमान से अन्धा होकर मसऊद ने आज्ञा दी, “इस औरत को नंगा करने पचास कोड़े मारे जाएँ।” क्षण-भर के लिए सर्वत्र सन्नाटा छा गया। रस्सियों में जकड़े हुए कैदियों ने लानत और धिक्कार की बौछार मसऊद पर करके उसकी ओर थूका। स्त्रियों ने कंचनलता को चारों ओर से घेर लिया। मसऊद अब यहाँ अधिक न ठहर तेज़ी से बाहर चला गया। शीघ्र ही आठ हथियारबन्द पठान सिपाही और दो कद्दावर जल्लाद हाथ में चमड़े के कोड़े लिए आ उपस्थित हुए। सब पुरुष कैदी क्रोध से थर-थर काँपने लगे। बहुतों ने रस्सियाँ तुड़ाने की चेष्टा की। स्त्री कैदियों ने कंचनलता पर अपने शरीर झुका दिए। सिपाही आगे बढ़े। कंचनलता ने कहा, “खबरदार, वहीं रहो। सिपाहियों की आवश्यकता नहीं है। जल्लाद ही काफी हैं। मैं कोड़े खाने को तैयार हूँ।” सिपाही ठिठक रहे। वह उठी और हंसिनी की चाल से चलकर जल्लादों के निकट आई और कहा, “तुम अपना काम करो।" जल्लाद, सिपाही और कैदी सब अवाक् थे। जल्लादों ने उसे दण्ड-स्थल पर जाने का संकेत किया। वहाँ जाने पर उन्होंने उसके हाथ बाँधे। उसका वस्त्र फाड़ डाला। शुभ्र मर्मर की प्रतिमा-सा उसका वक्ष और पीठ नंगी हो गई। देवचन्द्र ने पत्थर पर सिर दे मारा, कैदियों ने लानतों और अपशब्दों की झड़ी लगा दी। सबने अपनी आँखें बन्द कर लीं। स्त्रियाँ पछाड़ खाने लगीं। देखते-ही-देखते उस कुसुम-कोमल अबला बाला का वक्ष और पीठ लोहू से भर गई। वह मूर्छित होकर दण्ड-स्थल पर गिर गई। जल्लाद और सिपाही अपना काम पूरा करके चले गए। स्त्री कैदियों ने उसकी लोहू- लुहान मूर्च्छित देह को हाथोंहाथ उठा लिया। अभी उसके शरीर में प्राण था। उन्होंने उसे वस्त्र से ढका। औषध उपचार और मरहम-पट्टी का कोई प्रश्न ही न था। वे धीरे-धीरे जल की बूंदें उसके मुख और आँखों में टपकाती रहीं, कुछ देर के उपचार के बाद उसने आँखें खोल दीं। अपने को स्त्रियों से घिरी देखकर वह मुस्कराई। पर तुरन्त ही वेदना ने उसकी मुखाकृति बिगाड़ दी। इसी समय एक सिपाही ने एक पुड़िया और कुछ गर्म दूध उसे लाकर दिया। दूध पीने से उसे कुछ बल आया। पुड़िया में एक प्रकार का चूर्ण था। जिस कागज़ में पुड़िया बँधी थी, उसमें लिखा था, "हौसला रखो, सहायता निकट है, चूर्ण ज़ख्म पर छिड़क दो।" ऐसा ही किया गया। उस दिन कैदियों को यह तसल्ली हुई कि बाहर से सहायता का उद्योग हो रहा है और वे निरे असहाय-निरीह नहीं हैं। वह रात कंचनलता को गोद में लिए रहकर स्त्री कैदियों ने व्यतीत की। इसी एक घटना से कैदियों में एक संगठन और सहयोग की भावना का उदय हो गया। दूसरे दिन ही से सब स्त्री कैदियों ने भोजन करना त्याग दिया। उनकी सहानुभूति में पुरुष कैदियों ने भी ऐसा ही किया। तीन दिन तक इस विषय पर कोई विचार नहीं किया