था, वह यद्यपि बहुत बड़ा था परन्तु इतने कैदियों के रहने के योग्य न था। कमरे अन्धेरे, सील और गन्दगी से भरे थे। मुद्दत से उनकी सफाई नहीं हुई थी। जहाँ तक दृष्टि काम करती थी, वहाँ आदमी ही आदमी दीख पड़ते थे। कैदियों के पास ओढ़ने-बिछाने का कोई वस्त्र न था। वे वैसी ही नंगी और गीली भूमि पर रोग, भूख और थकान से अधमरे-से होकर आ पड़े थे। प्रत्येक अपनी मृत्यु चाह रहा था। हाहाकार, कराहना और रोने की आवाज़ों के मारे कानों के पर्दे फटे जाते थे। स्त्री-पुरुषों की कोई वहाँ मर्यादा न थी। वे सब नंगी ज़मीन पर ऐसे पड़े थे जैसे किसी ने मनुष्यों का फर्श बिछा दिया हो। पैर तो क्या, तिल धरने की कहीं जगह न थी। यदि कोई टट्टी-पिशाब को जाना चाहता तो उसे मनुष्यों की छाती या पीठ पर पाँव रखकर जाना होता था। ऐसा करने पर प्रतिरोध करने की किसी में ताब न रह गई थी, इस प्रकार पैरों से कुचले जाने पर वे केवल तिलमिलाकर कराह उठते थे। लाखों मनुष्यों के मलमूत्र-त्याग के लिए कोई व्यवस्था ही न थी। जहाँ जिसेसुविधा होती, बैठ जाता। लज्जा और सभ्यता का कोई प्रश्न ही न था। रोगी और अपाहिज जो अपने स्थान से हिल भी न सकते थे, वहीं पड़े-पड़े मल-मूत्र त्याग कर गन्दगी बढ़ा रहे थे। जिससे भयानक असह्य दुर्गन्ध और मृत्यु से भी अधिक दुखदायी हाहाकार की ध्वनि उस वातावरण में भरी हुई थी। रात से अधिक दिन और दिन से अधिक रात वहाँ जीवन के लिए असह्य हो रही थी। प्रत्येक को अपने प्राण भारी थे। माताओं ने पुत्रों को फेंक दिया था। पतियों ने पत्नियों से मुँह फेर लिया था और प्रत्येक व्यक्ति यह चाह रहा था कि उनका साथी उनका गला घोंटकर उन पर अनुग्रह करे। मध्याह्न में एक बार उन्हें नगर में भिक्षा माँगने को बाहर निकाला जाता। और वे लम्बी-लम्बी रस्सियों से बँधे हुए, घुड़सवार बलोचियों से घिरे हुए नगर की गली-गली, हाट-बाज़ार में भीख माँगने निकलते। इन कैदियों में लखपति, करोड़पति, सेठ-साहूकार, विद्वान्, कवि, पण्डित और व्यापारी, सिपाही, जागीरदार-उमराव, सिपाही सभी थे। बहुतों के सगे-सम्बन्धी रिश्तेदार पाटन में थे। वे अपने सम्बन्धियों को रस्सियों से बाँधा हुआ देख, ज़ार-ज़ार आँसू बहाते, दौड़-दौड़ कर उन्हें भोजन-वस्त्र देते, तसल्ली देते। दैत्य के समान सिपाही किसी कैदी को नागरिकों से बात करना देखते ही मार-पीट करने लगते। तनिक-तनिक-सी बात के लिए, अपने सम्बन्धियों को कोई वस्तु देने के लिए नागरिकों को बड़ी-बड़ी रिश्वतें इन बर्बर सिपाहियों को देनी पड़तीं। उन्हें यह भी भय था कि जैसे ये निरपराध नागरिक आज इस दुर्दशा में पड़े हैं, वैसे ही कल हम भी पड़ सकते हैं। हमारी रक्षा करने वाला पृथ्वी पर कौन है?
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३२३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।