कैदियों का काफला खम्भात, प्रभास और सौराष्ट्र से एक लाख बीस हज़ार कैदियों के काफले को साथ लेकर महमूद पाटन की ओर लौटा था। इस काफले में सबसे आगे साहसिक और ऐसे कैदी थे, जिन्होंने जम कर अमीर की सेना का मुकाबला किया था या वे जो कोई खास विरोध करते हुए पकड़े गए थे, या जिन्होंने अमीर के बहुत-से आदमियों को मार डाला था। और उनके विरुद्ध खास रिपोर्ट दर्ज थी। इन सबकी कमर में एक लम्बी रस्सी बँधी हुई थी, और उस रस्सी से ये सब एक-दूसरे से जुड़े थे। इनके पीछे हाथ-बँधे साधारण सिपाही, नागरिक, धुना-जुलाहे, ऐरे-गैरे सब पचमेल कैदी थे, जो बहुत से हथियारबन्द सिपाहियों से घिरे चल रहे थे। इनके पीछे रोगी, घायल और स्त्री कैदी थे, जो बाँधे हुए तो न थे पर हथियाबन्द पैदल और घुड़सवार सिपाहियों से घिरे चल रहे थे। सबके पीछे बड़े-बड़े प्रसिद्ध सेनापति, सरदार, धनी, सेठ-साहूकार और गिरासदार व्यक्ति थे। ऐसे दो-दो या तीन-तीन कैदी एक-एक सवार के सुपुर्द थे। वे उनकी कमर में रस्सी बाँध, उनको मज़बूती से घोड़े की काठी में अटका, नंगी तलवार उनके सिर पर घुमाते हुए बढ़े चले जा रहे थे। मीलों तक लम्बाई में इन अभागे कैदियों की कतार बनी हुई थी। उनमें बहुत-से ज़ार-ज़ार रोते, आँसू बहाते, छाती कूटते, गिरते-पड़ते साथियों के साथ घिसटते बढ़े चले जा रहे थे। रोगी और घायलों की दशा और भी खराब थी। उनमें बहुत से चलने-फिरने के योग्य भी न थे। फिर भी उन्हें सवारों के साथ घिसटना पड़ता था। उनके घावों की मरहम- पट्टी भी नहीं की गई थी। बहुतों के घाव सड़ गए थे। बहुतों के घावों से लोहू बह रहा था। परन्तु वहाँ कोई किसी का मिज़ाजपू॰ न था। स्त्रियों की दशा और भी दर्दनाक थी। इनमें अनेक गर्भिणी आसन्न-प्रसवा एवं प्रसूताएँ थीं। बहुत-सी स्त्रियों की गोद में बच्चों का बोझ था, जो भूख, प्यास और गर्द-गुबार से व्याकुल होकर रो-पीट रहे थे। उनकी अभागिनी माताएँ भी रोकर उनका साथ दे रही थीं। बहुत-सी कुलवधू, नववधू और कुमारिकाएँ ऐसी थीं जिन्होंने घर की दहलीज़ से बाहर कभी पैर भी न रक्खा था, पर-पुरुष की कभी सूरत भी न देखी थी। परन्तु दैव-दुर्विपाक से उन्हें इन दुर्दान्त निर्दय डाकुओं के साथ चलना पड़ रहा था। उनके पैर लोहू-लुहान हो गए थे और चलने की शक्ति न रही थी, परन्तु बिना चले कोई चारा न था। कोई घायल रोगी या स्त्री कैदी यदि चलते-चलते गिर जाता, तो उसके लिए रुकने की किसी को आवश्यकता न थी। लाखों मनुष्य और घोड़े उन्हें कुचलते-रौंदते उनके ऊपर से गुज़र जाते थे और उन्हें वहीं, मृत्यु उस वेदना से छुटकारा दे देती थी। जो कोई चलने में ढील करता, अटकता, उस पर ऊपर से चाबुक बरसते थे। जो भागने की चेष्टा करता उसका तुरन्त सिर काट लिया जाता था। आसमान धूल से भर गया था। आगे वाले कैदियों की धूल पीछे वालों के सिर पर पड़ती थी।
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