से कहा- पगड़ी नहीं थी। शोक और वृद्धावस्था के बोझ को, मानो न सह कर ब्राह्मण सोमदेव लाठी टेकते हुए थकित भाव से चले आ रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानो ब्राह्मण जिधर आ रहे हैं, उससे विपरीत दिशा की ओर उनका मन मचल रहा है। ब्राह्मण का मुख बर्फ के समान ठण्डा और सफेद हो गया था। धीरे-धीरे लाठी टेकते हुए ब्राह्मण भीड़ के निकट आए। सबने उनको चुपचाप मार्ग दे दिया, किसी ने भी उनसे कुछ कहने का साहस नहीं किया। वृद्ध ब्राह्मण ने पौर पर पहुँच द्वार पर लाल कुंकुम की थाप देखी, उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। आँसू पोंछ वे कुछ देर द्वार पर खड़े रहे। उन्होंने अपने काँपते हुए दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए, आँसुओं से धुंधली आँखों को सूर्य की ओर फिराया, और कुछ होंठो-ही-होंठों में कहा। उनका कंठ-स्वर फूटा नहीं, केवल होंठ फड़ककर रह गए। भीड़ में दो-चार गण्यमान्य नागरिक थे। उनमें कुछ सेठ के सम्बन्धी और मित्र भी थे। उन्होंने आगे बढ़कर ब्राह्मण से धीमे और अवरुद्ध स्वर से कहा," उन्हें रोकिए।” ब्राह्मण ठिठक गए। उनकी आँखों के आँसू सूख गए। उन्होंने धीमे किन्तु स्थिर स्वर “नहीं।” और उन्होंने स्थिर कदम से घर में प्रवेश किया। कुछ देर तक सन्नाटा रहा। इस समय अनगिनत मनुष्य वहाँ एकत्रित हो सांस रोके खड़े थे। सब ने देखा, नगर-सेठ धीरगति से बाहर आए। उन्होंने सफेद पोशाक धारण की थी। मस्तक पर केसर का तिलक था। उनका मुख भावहीन, दृष्टि पृथ्वी पर झुकी हुई और दोनों हाथ नीचे लटके हुए थे। आगे कुल-पुरोहित वृद्ध ब्राह्मण, पीछे सेठ क्रमबद्ध सब नीरव, सब शान्त। प्रमुख नागरिक, सेठ, सम्बन्धी सब पौर चढ़ कर भीतर गए। नगर-सेठ ने कहा- “भाइयो, कहा-सुना माफ! अपनी लाज अपनी आँखों में लेकर आज मैं जा रहा हूँ। ईश्वर आप लोगों को सुखी रखें!" इतना कहकर सेठ गड्ढे में उतर गए। वह बीच में रक्खे एक आसन पर पलौथी मारकर बैठ गए। फिर उन्होंने उच्च स्वर से कहा, “भाइयो, जो पुरुष अपनी पुत्री की रक्षा नहीं कर सका, उसके सिर पर एक-एक मुट्ठी धूल डालने की कृपा करो।" सबसे प्रथम वृद्ध ब्राह्मण ने दोनों मुट्ठियों में मिट्टी उठा, मन्त्र-पाठ कर मिट्टी डाली, उन्होंने सब मनुष्यों को भी मिट्टी डालने को प्रेरित किया। आँखों से चौधार आँसू बहाते और-'हे देव, हे प्रभु' का अस्फुट उच्चारण करते उन सैकड़ों मनुष्यों ने मिट्टी भरनी प्रारम्भ कर दी। देखते-ही-देखते नगर-सेठ मदन जी महता ने जीवित समाधि ले ली। इस भयानक कृत्य को देख उपस्थित जनता मूढ़ बनी एक-दूसरे को देखती रह गई। इसी समय आग-आग का शोर उठा। लोगों ने देखा, नगर-सेठ की विशाल अट्टालिका भीतर-ही-भीतर सुलग उठी है। उसमें से चारों ओर अग्नि की लपटें निकल रही हैं। लोग बाहर-भीतर दौड़ने लगे। इसी समय ऊपर के खण्ड का द्वार खुला और उसमें एक स्त्री-मूर्ति आ खड़ी हुई। उसके सम्पूर्ण वस्त्र घी में तर थे। और वस्त्रों से आग की लपटें निकल रही थीं। मानो उसने अग्नि का ही परिधान पहना हो। उसका मुख तेज से देदीप्यमान था। लटें बिखरी थीं। अचल वाणी से उसने कहा-
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