प्रियतम के पास शोभना ने दुर्दान्त महमूद को परास्त कर दिया था। और अब वह सकरुण भाव से उसकी आहत-वेदना की चिन्तना में मग्न थी। इसी समय ख्वाजा अब्बास ने आकर ज़मीन चूमकर उसे प्रणाम किया और हाथ बांध कर अर्ज़ की, “कि हुजूर का गुलाम अब्बास ख्वाजा खिदमत में हाज़िर है, लौंडियाँ जल्द हाज़िर हो रही हैं। और जो हुक्म हो, बजा लाया जाए।" शोभना एकाएक ध्यान से चमक पड़ी। सावधान होकर उसने कहा, "किसी लौंडी की मुझे ज़रूरत नहीं है, तुम खुद ड्यौढ़ियों पर हाज़िर रहो। और जब तक मैं न बुलाऊँ, मेरे आराम में बखल न दो। मैं बहुत थक गई हूँ और अब आराम करना चाहती हूँ।" अब्बास हाथ बाँधे पीछे हट गया। शोभना ने महल के दालान को भीतर से बन्द कर लिया और वह अब पागल की भाँति दालानों और अलिन्दों को पार करती हुई सीधी वहाँ पहुँची जहाँ अभागे फतह मुहम्मद की लाश पड़ी हुई थी वह दौड़कर लाश से लिपट गई। आर्तनाद करते हुए वह विलाप करने लगी- हे प्राणनाथ! प्रियतम! अब मैं तुम्हारे पास आई हूँ। बोलो, बोलो, अपनी शोभना से तुम क्या कहते हो, उसे तुम्हारी आज्ञा क्या है। अरे, मैंने तुम्हारी कितनी प्रतीक्षा की है, कितनी रातें जागते बिताई हैं, तड़पती रही हूँ तुम्हारी याद में। अब, अरे निठुर, तुम मिले तो बोलते भी नहीं। वे सब प्यार की बातें एक बार फिर कहो, जो तुमने बहुत बार कहीं हैं। वे सब वादे पूरे करो। हाय, कितने सुन्दर थे तुम। यह क्या हो गया। किसने तुम्हारी यह गत कर दी। कौन मेरी सौत, मेरी जन्म बैरिन निकल आई। किसने तुम्हारा मुँह मेरी ओर से फेर दिया। अरे, मैं तुम्हारी शोभना हूँ। शोभना, तुम्हारी शोभना। अरे देवा, तुम तो कभी भी ऐसे निष्ठुर नहीं थे। कितने भी रूठे रहते थे, पर मुझे देखते ही हँस पड़ते थे, आज क्या हो गया तुम्हें। हँसते क्यों नहीं। इतने क्यों रूठे हो। बोलो, बोलो, अजी बोलो। हाय-हाय बोलो देवा, मैं पुकार रही हूँ। तुम्हारी शोभना, अजी, शोभना। ओ, शोभना के छैला, ओ छलिया, ओ प्रियतम!!! शोभना मूर्छित हो गई। मूर्छित होकर लाश से लिपटी पड़ी रही। बहुत देर बाद उसे होश हुआ। उसने आँख फाड़-फाड़कर चारों ओर देखा। लाश को उठाकर वह दालान में ले गई। वहाँ फतह मुहम्मद का कटा सिर पड़ा था। उसे उठाकर उसने उसे घूर-घूर कर देखना शुरू कर किया। फिर एक उन्माद का आवेश उसे हुआ, बड़बड़ाते हुए उसने जैसे फुसफुसाकर कहा, “वही हो, वही हो, वही आँखें हैं, पर नज़र वह नहीं। वही होंठ हैं, पर रंग वह नहीं, वही तुम हो पर-फिर उसने ज़ोर से सिर को छाती से लगाया। फिर सिर को धड़ से जोड़कर उसे घूर-घूरकर देखने लगी। सूर्य पच्छिम से नीचे को झुक रहा था। धूप पीली पड़ रही थी। वह उठी, सिर को झरने पर ले जाकर धोया। सूखा खून आँचल से पोंछा। फिर उसे लाकर धड़ पर जमा कर रख दिया। वह बड़ी देर तक उसे देखती रही। अब उसके आँसू सूख गए थे। कुछ विचार उसके मस्तिष्क में आए। उसने सोचा, अब इस जीवन से क्या काम। क्यों न अभी इस
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३११
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।