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अतिरथ का साम्मुख्य उस दो घड़ी शोभना ने गज़नी के अप्रतिरथ महारथी के सम्मुख होने की सब तैयारियाँ कर लीं। शारीरिक भी और मानसिक भी। कक्ष में चौलादेवी के लिए यथेष्ट राजसी सामग्री प्रस्तुत की गई थी। शोभना ने वस्त्र, अलंकार और शृंगार की पराकाष्ठा कर दी। उसी पराकाष्ठा में उसे अपने प्यारे के घात का हाहाकार छिपाना था। उसी से उस अप्रतिरथ विजेता को परास्त करना था। समय और परिस्थिति ने, प्राणोत्सर्ग की कल्पना ने उसमें असीम साहस का सृजन कर दिया था। उसी साहस ने उसके प्रत्येक जीवन-कण में प्रगल्भ सत्ता को आपूर्ण कर दिया। जिस प्रकार शत्रु का हनन करने के लिए तलवार पर सान रखकर तीखी धार तैयार की जाती है, उसी प्रकार उसने अपना शृंगार उल्वण बनाया। कक्ष को भी सब सम्भव साधनों से सुसज्जित कर आसन के नीचे, वही प्यारे के रक्त से भरा खड्ग छिपाकर वह महारानी की सज्जा से बैठ गई। उस सिंहिनी की भाँति, जो हिरण की ताक में बैठी हो। इस समय भय, चिन्ता और शोक का उसके मन में लेश भी न था। केवल सत्साहस से उसका प्रत्येक रक्त बिन्दु परिपूर्ण था। शौर्य को प्यास की शाश्वत भूख रहती है। वास्तव में रस की दृष्टि से देखा जाय तो वीर और शृंगार, जिस एक ही स्थान पर संघात खाता है, वह केन्द्र है 'पौरुष'। महमूद में समर्थ पौरुष था। वह जिस कुल और वातावरण में जन्मा और बढ़ा था, उसमें सम्भवतः प्यार की पीर का कोई महत्त्व ही न था। जहाँ स्त्री-शरीर पुरुष-शरीर की दासता करते हैं, जहाँ इच्छा होते ही क्रीत दासियाँ वासना और कामना की निर्जीव पूर्ति करती हैं, जहाँ प्यार की प्रतिष्ठा नहीं है, जहाँ केवल वासना ही वासना है, वहाँ प्यार की पीड़ा के मिठास की अनुभूति कैसे हो सकती है। परन्तु चौला के प्रति प्रथम दर्शन ही में, अमीर महमूद के मन में प्यार की पीर का उदय हुआ था। चौला उसे प्राप्य न थी। इसी से उस पीर ने उसके सम्पूर्ण शौर्य को आहत किया था। और जो दुर्दान्त मूर्तिभंजक और दुर्धर्ष विजेता सोलह बार सम्पूर्ण भारत को आग और तलवार की भेंट कर था, इस वार्धक्य में चौला के प्यार से तड़पता हुआ सोमतीर्थ आ पहुँचा। परन्तु इस माँग में प्यार कितना था और वासना कितनी, इसका शायद उसे ज्ञान न था। प्यार और वासना का भेद वह कदाचित् जानता भी न था। अभी तक उसके मन का पशुत्व ही जीवित था, उस पशुत्व को स्त्री-शरीर ही की भूख थी। उसे अधीन करके ही चिरकृतार्थ होना वह समझ रहा था, स्त्री-मन की तो उसने कभी कल्पना भी न की थी। इसीलिए वह अपनी रक्तरंजित तलवार की धार ही से प्यार की इस राह को साफ करता यहाँ तक आ पहुंचा था। शोभना का सन्देश पाकर उसके प्राण हरे हो गए। अज्ञात ही में उसके मन में प्रेम के सतीत्व भावों का उदय हुआ। वह अपने भीतर एक कम्प, एक वैकल्य अनुभव करने लगा, जीवन में पहली ही बार वह समझा कि कुछ ऐसी वस्तु भी संसार में है, जिसके सम्मुख उस-जैसा दुर्दान्त विजेता भी दीन भिक्षुक है। फिर भी वह प्रसन्न था। उसने तुरन्त आज्ञा दी, कि युद्ध, मार-काट, लूट-पाट तुरन्त