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तलवार तो भी..." “सखी, तुम सदैव मेरे हृदय में रहोगी।” चौला ने उसे छाती से लगाया, हाथ में ली और गर्भगृह में उतर गई। गर्भगृह का द्वार भली-भाँति बन्द करके शोभना ने अपने वस्त्र बदल डाले। देवी चौला के वस्त्र पहने, आभरणों से अपने को अलंकृत किया। रानी की-सी गरिमा धारण कर, वह एक चौकी पर आगे आने वाले क्षण का सामना करने को बैठ गई। इसी क्षण फाटक टूट गया और अनेक सैनिक कक्ष में घुस गए। शोभना ने कड़ककर कहा, “खबरदार, एक कदम भी भीतर न रखना। केवल तुम्हारा जो सेनापति हो, वह भीतर आए।" एक प्रौढ़ तुर्क सेनानायक आगे बढ़ा। शोभना, रानी के समान चौकी पर बैठी रही, उसने नायक को घूरकर कहा, “मूर्ख, शस्त्र बाहर रख दे, और तब सम्मुख आ।" नायक ने देखा, यह रानी के समान गुण-गरिमावती स्त्री कदाचित् वही रानी है, जिसकी अमीर ने माँग की है। वह स्त्री है, निश्शस्त्र है। उसने अपने शस्त्र खोलकर रख दिए। और डरता-डरता आगे बढ़कर शोभना के सम्मुख आ खड़ा हुआ। शोभना ने कहा- "अमीर नामदार का तुम्हें क्या हुक्म है?" “आलीजाह उस नाज़नी को अपने रूबरू देखना चाहते हैं, जो इस महल में रहती "तो अमीर नामदार को हमारा हुक्म पहुँचा दो, कि वह दो घड़ी बाद यहाँ तशरीफ लाएँ। और इस महल पर तुम सिर्फ पचास जवानों के साथ अपना पहरा रखो। तुम्हारे जवान महल से दो तीर के फासले पर रहें। और तुम अकेले ड्योढ़ी पर हाज़िर रहो।" “यह हुक्म किसका है?" “उनका, जिन्हें अमीर नामदार रूबरू देखना चाहते हैं।" नायक ने सिर झुकाकर शोभना को प्रणाम किया। और, "अभी हुक्म बजा लाता हूँ" कहकर चला गया। शोभना आसन से उठकर उस सूने आँगने में टहलने लगी। एक भी प्राणी उसका सहायक न था। वह अकेली स्त्री, गज़नी के अतिरथ विजेता महमूद से जूझने को तैयार खड़ी थी।