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मरुस्थल के राजा हैं। सपादलक्ष के, नान्दोल के चौहान, झालौर के परमार, अवन्ती के भोज, अर्बुद के ढुण्डिराज हैं। फिर पट्टन के सोलंकी हैं। इनके साथ लक्ष-लक्ष, कोटि-कोटि प्रजा है, जन-बल है, अथाह सम्पदा है, इनका अपना घर है, अपना देश है। फिर भी यह आततायी विदेशी, इन सबके सिरों पर लात मार कर, सबको आकान्त करके, देश के दुर्गम स्थानों को चीरता हुआ, राज्यों को विध्वंस करता हुआ, इस अति सुरक्षित समुद्र-तट पर सोम-तीर्थ को आक्रान्त करने में सफल हो तो कुमार, यह उसका दोष नहीं, उसका विक्रम है—उसका शौर्य है। दोष यदि कहीं है तो तुममें है।"

कुछ देर तक गंग सर्वज्ञ चुप रहे। फिर बोले, "देव तो भावना के देव हैं। साधारण पत्थर में जब कोटि-कोटि जीवित जन श्रद्धा, भक्ति और चैतन्य सत्ता आवेशित करते हैं तो वह जाग्रत देव बनता है। वह एक कोटि-कोटि जनों की जीवनी-सत्ता का केन्द्र है। कोटि-कोटि जनों की शक्ति का पुंज है। कोटि-कोटि जनों की समष्टि है। इसी से, कोटि-कोटि जन उससे रक्षित हैं। परन्तु कुमार, देव को समर्थ करने के लिए उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करनी पड़ती है। वह कोरे मन्त्रों द्वारा नहीं, यथार्थ में। यदि देव के प्रति सब जन, अपनी सत्ता, सामर्थ्य और शक्ति समर्पित करें, तो सत्ता, शक्ति और सामर्थ्य का वह संगठित रूप देव में विराट पुरुष के रूप का उदय करता है। फिर ऐसे-ऐसे एक नहीं, सौ गज़नी के सुलतान आवें तो क्या? जैसे पर्वत की सुदृढ़ चट्टानों से टकरा कर समुद्र की लहरें लौट जाती हैं, उसी प्रकार उस शक्ति-पुंज से टकराकर खण्डित शक्तियाँ चूर-चूर हो जाती हैं...

"थानेश्वर, मथुरा और नगरकोट का पतन कैसे हुआ, इस पर तो विचार करो। महमूद तुम पर आक्रमण नहीं करता, राज्यों का उसे लोभ नहीं है। वह तो देव-भंजन करता है। कोटि-कोटि जनों के उस अविश्वास और पाखण्ड को खण्डित करता है। कोटि-कोटि जनों के उस अविश्वास और पाखण्ड को खण्डित करता है, जिसे श्रद्धा और भक्ति कहकर प्रदर्शित करते हैं। वह भारत की दुर्बलता को समझ गया है। यहाँ धर्म मनुष्य-जीवन में ओत-प्रोत नहीं है। वह तो उसके कायर, पतित और स्वार्थमय जीवन में ऊपर का मुलम्मा है। नहीं तो देखो, कैसे वह एक कुरान के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों योद्धाओं को बराबर जुटा लेता है। कुरान के प्रति उनकी श्रद्धा, उसमें और उसके प्रत्येक साधारण सिपाही में मुलम्मे की श्रद्धा नहीं है, निष्ठा की श्रद्धा है..

"इसी से कुमार, मेरी दृष्टि में वह उस आशीर्वाद ही का पात्र है, जो मैंने उसे दिया...और प्राणि-मात्र को अभयदान तो भगवान सोमनाथ के इस आवास का आचार है, मैं उस आचार का अधिष्ठाता हूँ, यह भी तो देखो!"

"परन्तु गुरुदेव, शत्रु-दलन की शक्ति क्या देवता में नहीं है?"

"कुमार! यदि राजा के मन्त्री, सेना तथा प्रजा अनुशासित न हों, सहयोग न दें, तो राजा की शक्ति कहाँ रही? राजा की शक्ति उसके शरीर में नहीं है। शरीर से तो वह एक साधारण मनुष्य-मात्र है। उस राजा के शरीर को नहीं, उसके राजत्व की भावना को अंगीकार करके जब सेना और मन्त्री दोनों का बल उससे संयुक्त होता है, तब वह महत्कृत्य करता है। इसी भाँति पुत्र, देवता अपने-आप में तो एक पत्थर का टुकड़ा ही है, उसकी सारी सामर्थ्य तो उसके पूजकों में है। वे यदि वास्तव में अपनी सामर्थ्य समष्टिरूप में देवार्पण करते हैं, तो वे देवत्व का उत्कर्ष होता है। वास्तव में भक्त की सामर्थ्य का समष्टि-रूप ही देव