व्याकुल होकर कहा, “सेनापति, प्रत्येक क्षण बहुमूल्य है। गुजरात के स्वामी की रक्षा कीजिए, वह गुप्त राह है।" “किन्तु आप?" “मैं अपनी रक्षा में समर्थ हूँ।" “फिर भी?" चौला ने एकबारगी ही क्रोधावेशित होकर कहा, “क्या तुम दुर्गाधिष्ठात्री की आज्ञा नहीं सुन रहे सेनापति?" “सुन रहा हूँ,” बालुक ने आँखों में आँसू भरकर कहा। "तो तुम इन क्षणों का मूल्य नहीं आँक रहे, एक क्षण का विलम्ब भी घातक है। गुजरात को अनाथ करने की जोखिम तुम उठा रहे हो।" बालुकाराय ने महाराज का मूर्छित शरीर कन्धे पर उठा लिया और भूमिगर्भ में प्रवेश करते हुए कहा, “आपको मैं भगवान् सोमनाथ की रक्षा में छोड़ रहा हूँ महारानी।" और वह अन्धकार में विलीन हो गया। चौला ने जितने सैनिक वहाँ थे, सभी को भू-गर्भ में उतार दिया और भली-भाँति भू-गर्भ का द्वार बन्द करके छिपा दिया। फिर शोभना से कहा, "सखी, अब हम-तुम दो हैं।" "हम एक हैं महारानी।" "रानी नहीं बहिन।' “महारानी जी, आप आज्ञा दीजिए।" “तो बहिन, द्वार बन्द कर ले, और एक तलवार हाथ में ले ले, जिससे एक मुहूर्त- भर किसी भाँति इस भूगर्भ की रक्षा कर सकें। फिर गुजरात का अधिपति सुरक्षित है। इसके बाद हमारा जो हो, सो हो।" “जो आज्ञा!" कहकर शोभना ने द्वार बन्द कर लिए और नंगी तलवार ले द्वार से सटकर बैठ गई। ”
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२९६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।