कोमल कृपाण अब संकट-काल समुपस्थित देख बालुकाराय ने महाराज की सुरक्षा का सबसे प्रथम विचार किया। वह महाराज के कक्ष में गए। महाराज की सेवा में चौला देवी और शोभना थी। दो- एक सेवक भी उपस्थित थे। बालुकाराय ने कहा, “महाराज, शत्रु दुर्ग में घुस आए हैं। हमारे पास सेना बहुत कम है। अब आप अविलम्ब यहाँ से प्रस्थान कीजिए।" परन्तु महाराज भीमदेव असंयत होकर शय्या से उठकर खड़े हो गए और अपने शस्त्र माँगने लगे। इससे उनके अनेक घावों के टाँके टूट गए और उनसे खून बहने लगा। चौलादेवी ने त्रस्त-भाव से उन्हें शय्या पर लिटाकर कहा, “महाराज, मेरी एक विनती है!" “कहो प्रिये।" “इसी क्षण दुर्ग मुझे प्रदान कीजिए।" “तुमको?" "हाँ महाराज, विचार मत कीजिए।" “किन्तु बालुक... "महाराज, तुरन्त दुर्ग मुझे दीजिए, या मेरा प्राण जायगा।" “देवी, तुम्हें तुरन्त रक्षा-स्थान में जाना चाहिए।" किन्तु चौला ने तत्काल महाराज भीमदेव की तलवार उठा ली। और कहा, “महाराज, इसी तलवार की आपको आन है, दुर्ग मुझे दीजिए। मैंने कहा, मेरे चरणों में जैसा नृत्य-कौशल है, हाथों में वैसा ही युद्ध-कौशल भी है। महाराज, मेरा वह कौशल देखें।" "तो फिर जैसी चौला महारानी की इच्छा!" चौला तुरन्त बालुकाराय की ओर मुड़ी। उसने कहा, “सेनापति, इसी क्षण महाराज को सुरक्षित दुर्ग से बाहर ले जाओ, और आबू की राह लो। दुर्ग में मुझे एक भी योद्धा की आवश्यकता नहीं है-सभी योद्धा महाराज की रक्षा में जाएँ।” महाराज ने असंयत होकर कहा, “यह क्या? भला मैं तुम्हें यहाँ अरक्षित छोड़कर जाऊँगा?" "अरक्षित नहीं महाराज, गुजरात के धनी की तलवार मेरे हाथ में है, फिर यह खम्भात की दुर्गाधिष्ठात्री की आज्ञा है, इसका तुरन्त पालन होना चाहिए।" “नहीं, नहीं रानी, यह असम्भव है, मैं युद्ध करूँगा। बालुक, मेरा घोड़ा लाओ।" महाराज भीमदेव एकबारगी ही उठ खड़े हुए, परन्तु दूसरे ही क्षण कटे वृक्ष की भाँति भूमि पर गिर गए। उनके घावों से रक्त बहने लगा। वे मूर्छित हो गए। इसी समय एक सैनिक ने आकर सूचना दी-दुर्ग में बहुत शत्रु घुस आए हैं। वे इधर ही चले आ रहे हैं। रह-रहकर 'अल्लाहो अकबर' का नाद निकट आ रहा था। चौला ने
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